Sunday, August 9, 2009
बड़े मियां-१
दूसरे ही दिन अकीला बड़े मियां के घर पहुच गई। कहने लगी कि बड़े मियां, अब आपकी फूंक मे वो पहले वाली जान नही रह गई है। साथ मे अकीला की माँ आयशा बेगम भी थीं। उनके मुह से भी वही बोल फूट रहे थे जो अकीला के मुह से। बड़े मियां की बेगम बोली कि जब दम नही रह गया है तो क्यों मुहल्ले भर मे फूंक मारते फिरते हो? बड़े मिया बड़े परेशान। छत पर बने अकेले कमरे मे पहुचे और सोचने लगे। दरअसल यह कमरा बड़े मियां ने सोचने के लिए रिजर्व कर रखा था। कमरे मे बैठने के लिए कुछ नही था, अगर कुछ था तो बस अनाज की बोरियां, कुछ एक पुराने बक्से, चारपाई के टूटे हुए पाए और टूल बोक्स। कुछ दिन पहले पानी की टंकी भी उसी कमरे मे लगवा ली थी क्योंकि बाहर खुले मे होने की वजह से अक्सर बन्दर आकर उसमे धमा चौकड़ी किया करते थे। बड़े मियां पानी की टंकी के पास जा बैठे। गर्मी से कुछ रहत मिली तो सोचने लगे। कई दिन तक जाप करने के बाद तो ये मंतर सिध्द किया था, अब काम काहे नही कर रहा है। सोचा कि अगर मंतर काम कर रहा होगा तो अभी फूँकने से टूल बक्सा खुल जाएगा या कोई चमत्कार जैसी चीज होगी। बड़े मियां ने बुदबुदाते हुए मंतर पढ़ा। बक्से की तरफ़ फूंक मारी। लेकिन बक्सा था कि हिलने का नाम ही नही ले रहा था। बड़े मियां को समझ मे नही आ रहा था कि वो क्या करें। ये बात अगर मुःल्ले मे फ़ैल गई तो उनका कोई नामलेवा नही बचेगा। तकरीबन पौन घंटा सोचने और किसी निष्कर्ष पर न पहुचने के बाद आखिरकार बड़े मियां ने चौराहे पे जाने की सोची।
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