Wednesday, August 5, 2009
'स' से चीजें बिकती हैं...
आज से और अपने पिछले अनुभवों से मैंने देखा की इस वक्त भारतीय मीडिया बाजार मे स से शुरू होने वाली काफ़ी सारी चीजें बिकती हैं, झूम के बिकती हैं। सेक्स हो या साम्प्रदायिकता। स्वयंवर हो या सिनेमा। सच का सामना हो या सामने वाले घर की बातें। जिन चीजों के आगे 'स' लगा दिया गया, उसे बिकना ही है। ब्लॉग जगत मे भी मैंने देखा की 'स' से बिकने वाली चीजें बहुतायत मे हैं। खासतौर पर सेक्स और साम्प्रदायिकता। जब कभी सेक्स या साम्प्रदायिकता पर लिखा गे, खूब पढ़ा गया और आलोचना के साथ था बडाई भी मिली। अभी भी साम्प्रदायिकता खूब बिक रही है। हिंदू मुसलमान के आपसी सम्बन्ध , चाहे वो अच्छे हों या बुरे, खूब बिक रहे हैं। साम्प्रदायिकता की दुकाने सजी हुई हैं और उन्हें बेचने वाले मालामाल हो रहे हैं, हो गए हैं। साम्प्रदायिकता को बेचने -भुनाने मे हमारे नेता भी पीछे नही हैं। तभी तो लालकृष्ण अडवाणी ने अयोध्या मे होने वाले कोरियन विकास का मुद्दा ठुकरा दिया था। आख़िर अयोध्या के चिराग से निकलने वाला मन्दिर का जिन्न उन्हें अपने हाथ से जाता जो लगा। कई चैनलों ने साम्प्रदायिकता का विरोध किया, खासकर गुजरात के मामले मे, तो उस वक्त तो उनकी टी आर पी बढ़ गई, लेकिन आज वो भी पछताते हैं की उनके विरोध ने हिंदू मुस्लिम राजनीति करने वालों को फायदा ही पहुचाया। मुझे तो लगता है चैनलों का साम्प्रदायिकता विरोध प्रायोजित था, बिल्कुल वैसे ही जैसे की इस लोकसभा चुनावों मे चुनावी खबरें पूरी तरह से प्रायोजित थी। और अब उनका पछताना ख़ुद के प्रायोजित कर्म को हवा निकले गुब्बारे जैसा जस्टिफाई करना लगता है। खैर, जो कुछ भी है, ये तो बाजार है, जो बिकता है, वही दिखता है।
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