Wednesday, December 27, 2017

FRDI Bill: क्या टैक्स के पैसों से बैंक बचाना ठीक है?

वैसे हम ये भी पूछ सकते हैं कि क्या टैक्स के पैसों से बैंक बचाना ठीक है? थ्योरिटिकली इसका जवाब हां है। मगर तब, जब कि बैंक अपनी तय सामाजिक भूमिका निभा रहे हों। अगर बैंक पैसों को सट्टा बाजार में लगा रहे हैं और इसी वजह से दुखी हैं तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ये वो काम नहीं है जिसके लिए इन बैंकों को बनाया गया है। बैंकों को बचाने के लिए टैक्स का पैसा थ्योरिटकली उपलब्ध‘होना चाहिए, लेकिन बैंकों की सट्टा बाजारी जैसी हरकतों पर लोकतांत्रिक नियंत्रण भी होना चाहिए।

अकेले उनका सरकारी होना एनफ नहीं है। इसके अलावा, टैक्सपेयर्स और बैंक में पैसा जमा करने वालों के बीच चलने वाला ये पूरा पचड़ा एक छलावा है जिसे एफआरडीआई विधेयक के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों यानी एनपीए के बारे में इतना हल्लागुल्ला होने के बावजूद, ये संपत्तियां बैंक की कुल परिसंपत्तियों का लगभग 12 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इस तरह का तकरीबन 90 प्रतिशत एनपीए राष्ट्रीयकृत बैंकों का है। लेकिन कुल बैंकिंग व्यवसाय में ऐसे बैंकों के बड़े हिस्से को देखते हुए उनके एनपीए का भार इतना अधिक नहीं है कि उसे किसी तरह के खतरे की घंटी समझा जाए।  इसके अलावा, सरकार ने अभी-अभी सवा दो लाख करोड़ रुपये के रीकैपिटलाइजेशन की घोषणा की है। इसलिए अब तो बैंकों के पास तो पैसे ही पैसे हैं और सबकी हालत ठीक है। और आगे भी ठीक ही रहनी है।

अरुण जेटली संसद में ये जो बिल लाए हैं, इसे वह टैक्सपेयर्स और बैंक डिपॉजिटर्स के बीच हितों के संघर्ष की कल्पना करके ठीक कहने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा तो बस एक ही हाल में हो सकता है, जो अभी दूर-दूर तक नहीं दिख रहा। और अगर होगा भी तो उसे रोकने के कई तरीके हैं, जिनमें से एक चीज है सावधानी। लेकिन सावधानी को सरकार ने छह से दस बजे तक के लिए बैन कर दिया है। सरकार बिस्तर से लेकर बैंक तक बेतुकी बातें ही नहीं कर रही, बल्कि बेहद बदमाशी भरे फैसले भी करने की तैयारी में है। प्राइवेट कंपनी के लोन डिफाल्टर देश के कुल एनपीए में 75 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते हैं, उनका गबन उन्हीं से वसूला जाना चाहिए। मगर अब ऐसा नहीं होगा। अब सरकार बहादुर ओपड़ी दी गुड़गुड़ फिटे मुंह पाकिस्तान टू दी हिंदुस्तान का इंतजाम है कि लोन लेकर भागने वालों का पैसा हम आप जैसे लोग भरेंगे, क्योंकि हम बैंक में पैसे जमा करते हैं।
समाप्त
Story- Pro. Prabhat Patnayak

पार्ट- 1- 

पार्ट- 2- 

पार्ट- 3- 

पार्ट- 4- 

पार्ट- 5- 

पार्ट- 6- 

FRDI Bill: बेहाल बैंकों की इक्विटी की औकात क्या होगी

वित्त मंत्री अरुण जेटली कह तो रहे हैं कि हमारे हितों की रक्षा की जाएगी; लेकिन यह बता ही नहीं रहे कि कैसे करेंगे रक्षा? एफडीआरआई बिल में बैंक की हालत के पतली होने की हालत में जिन लोगों की रकम सुरक्षित रखी जाएगी, उनकी लिस्ट बनी है। इस लिस्ट में बैंकों में जिनकी रकम का बीमा नहीं होता, वो पांचवे नंबर पर हैं। सरकार का दावा है कि उनकी रकम खत्म तो नहीं होगी, मगर उनकी रकम को इक्विटी में बदल दिया जाएगा।

कुल मिलाकर ऐसा माना जा रहा है कि बैंक जब नाजुक हालत में होंगे तब इस बिल के तहत वो हमारे जमा पैसे से अपना सारा घाटा पूरा कर लेंगे। और फिर इसी बिल से एक सुरंग और निकल रही है। ये सुरंग सार्वजनिक क्षेत्र के सारे बैंकों के प्राइवेट बाजार में निकल रही है। वैसे हमारी जिस रकम को इक्विटी में बदलकर बचाने का दावा सरकार कर रही है, वो दावा भी तकरीबन खोखला ही है।

जब बैंकों की हालत खराब होगी और हमारी जमा को इक्विटी में बदला जाएगा, तब इक्विटी की भी वैल्यू अपने आप कम हो जाएगी। इसलिए बैंकों में जितना पैसा हमारा जमा होगा, उसकी भी वैल्यू कम हो जाएगी। यानि घाटा होना तय है। इसके अलावा हमें अगर अपना पैसा चाहिए होगा तो इस इक्विटी को निजी कंपनियों को बेचना ही पड़ेगा। और अगर बैंक अपनी इक्विटी निजी कंपनियों को बेचते हैं तो जानते हैं क्या होगा? फिर बैंकों की मालिक निजी कंपनियां होंगी। फिर सारे बैंक प्राइवेट होंगे। यानि कि इस बिल में चाहे कोई सरकारी टीम काम करे या प्राइवेट, होना यही है कि बैंक निजी कंपनियों के हाथ कौड़ियों के मोल बिकने हैं। और इस काम के लिए संसद से भी न तो पूछा जाएगा और न ही बताया जाएगा। सीधे कार्यपालिका ही बैंकों को बेभाव लुटा सकेगी।
Story- Pro. Prabhat Patnayak
जारी

पार्ट- 1- 

FRDI Bill: मजा मारें गाजी मियां, धक्का सहें डफाली

वैसे इतना महीन बिल मोदी जी के करामाती और फोटोशॉप से भी तेज दिमाग से नहीं निकला है। दस साल पहले सन दो हजार आठ में जब दुनिया में मंदी आई थी, तब फाइनेंशियल स्टैबिलिटी बोर्ड बना था। ये बिल उसी की सिफारिशों पर बना है। ताकि यह पक्का हो सके कि भविष्य में ऐसे संकटों में जब भी वित्तीय प्रणाली फंसे तो उसके लिए अलग से बजट न रखा जाए। उस वक्त अमेरिका ने भी यही किया था और वहां लोग सबसे ज्यादा तबाह हुए थे। भारत जी-20 देशों में से एक था, जिसने इस बोर्ड की सिफारिशों को स्वीकार किया था। एफआरडीआई विधेयक इसी का नतीजा है।

लेकिन हम जैसे टैक्स देने वालों से मिले पैसे से किसी निजी कंपनी या इंस्टीट्यूट को बचाने और सरकारी इंस्टीट्यूट को बचाने के बीच एक बहुत बड़ा फर्क है। एक में कोई वैधता नहीं है तो दूसरे में वैधता है। असल में सरकार बैंकों को खुद ही इस तरह की जहरीली और नुकसानदेह परिसंपत्तियों से दबने से रोक सकती है, जिससे हम टैक्स देने वालों के पैसे से बैंकों के बचाए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होना चाहिए। और निश्चित रूप से जैसा अमेरिका में हुआ, उतने बड़े पैमाने पर तो बिलकुल नहीं पैदा होना चाहिए।

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि उस वक्त भी भारत में राष्ट्रीयकृत बैंकों की  ये जहरीली या हानिकारक परिसंपत्तियां इतनी कम थीं कि प्राइवेट सेक्टर के झंडाबरदारों को भी यह मानना पड़ा कि बैंक राष्ट्रीयकरण के कारण भारत बाकी दुनिया की तरह फंसा नहीं था, बल्कि हमारी हालत अच्छी थी। इसलिए, तरक्की के हिमालय पर बैठे पूंजीवादी देशों के इस आइडिया को अपने यहां भारत में अपनाने का विचार बेतुका है।
इस आइडिया में धन्ना सेठों को ढेर सारी ऐसी पूंजी मिल जाएगी जिसे बैंक हमारी जेब से वापस लेंगे। मतलब मजा मारें गाजी मियां, धक्का सहें डफाली। और इकॉनामी और उससे जुड़े मामलों में हमारी मोदी सरकार तो पहले ही कितनी समझदार है, पिछले तीन सालों से हम देख ही रहे हैं। ऐसे में ये नए नए पंडितों के बताए रास्ते पर अंधी होकर चल रही है और न डफाली को देख पा रही है और न ही धक्के को।
Story- Pro. Prabhat Patnayak
जारी

पार्ट- 1- 

नोटबंदी और एफआरडीआई बिल में कंपनियों की खुली लूट

मगर अब ये दीवार दरक जाएगी। ये भरोसा कमजोर हो जाएगा। नोटबंदी ने कागज के इन नोटों पर से हमारा भरोसा पहले ही हटा दिया था। मोदी जी ने वादा भी किया था कि ऐसे झटके तो लगते रहेंगे। गनीमत रही कि नोटबंदी में पैसों का नुकसान नहीं हुआ। बस हमें लंबी लंबी लाइनें लगानी पड़ीं, थोड़ा रोना पड़ा, थोड़ा लड़ना पड़ा और पैसे न मिलने पर ढेर सारा कुढ़ना पड़ा। शादी ब्याह कर रहे थे या मकान बनवा रहे थे, सब रुक गया, सब थम गया। और बची रह गई कुढ़न

जैसे हाथ में रखे पैसे पर से भरोसा टूटा, वैसे ही बैंक में रखा पैसा, यानि कि रकम बहुत दिन तक सेफ असेट नहीं रहने वाली। एफआरडीआई बिल में सरकार की सारी बीमा और दूसरी वित्तीय कंपनियां शामिल हैं। इसलिए इस बिल के बाद जैसे बैंक डिपॉजिट में हमारा भरोसा नहीं रह जाएगा, वैसे ही बीमा और इन्वेस्टमेंट के दूसरे सारे तरीकों पर से हमारा भरोसा उठ जाएगा।
क्योंकि जमा तो कहीं भी करें, हमारा कुछ भी जमा सेफ होने की कोई सरकारी गारंटी नहीं। एक ऐसी अर्थव्यवस्था में जहां लोगों को न पैसे का भरोसा हो, न बैंक पर यकीन हो और न ही किसी दूसरे तरह की जमाओं पर विश्वास हो, उसका क्या हाल होने वाला है, ये बात बुद्धि में आ रही है या नहीं? फिर पैसे कैसे बचाएंगे? फिर तो सबसे सेफ होगा सोना, जमीन या हीरे, जवाहरात, अशरफियांबिटकॉइन? नहीं, अब तो उसपर भी इनकमटैक्स वाले लग गए। रखेंगे कैसे? जैसे हमारे परदादा और लकड़दादा रखते आए हैं। डिजिटल इकॉनमी की ऐज में मोदी सरकार हमें भगवान राम के युग में लेकर जा रही है। रामराज आ रहा है।  सब राम जी का है ना?
Story- Pro. Prabhat Patnayak
जारी



पार्ट- 1- 

एफआरडीआई बैंकों का भरोसा तोड़ देगा

अभी क्या है कि अकाउंट में एक लाख रुपये तक जमा होते हैं तो उनका पूरा इंश्योरेंस होता है। बैंक डूब जाए, भाग जाए, लुट जाए, जल जाए, तो भी हमारा पैसा सेफ रहता है।
ये इंश्योरेंस एलआईसी नहीं करती है। इसके लिए बाकायदा डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन है। ये रिजर्व बैंक की सहायक कंपनी है। इस बिल में इसे बंद कर देंगे और इसकी जगह इसके जैसा कोई दूसरा कॉरपोरेशन नहीं खोला जाएगा।
लेकिन इससे भी जरूरी बात तो ये है कि बैंकों पर हमारे भरोसे की वजह सिर्फ ये कॉरपोरेशन ही नहीं था। हमें भरोसा इसलिए भी था कि हमारी सरकार बैंकों की मालिक है और अगर कभी ये बैंक फेल हुए तो कम से कम वो तो इनके पीछे खड़ी है।

यह वही विश्वास है, वही यकीन है जिसकी वजह से हमारे आप जैसे लाखों लोग जाने कैसे और किन जरूरतों को सोचकर बैंकों में पैसा जमा करते रहे हैं। और इस जमा के बदले में हमें जो ब्याज मिलता है, वो तो डिपाजिट शेयर, म्यूचुअल फंड और कई तरीकों के हिसाब से बहुत कम होता है। मगर भरोसा तो होता है।
अब ये भरोसा, हमारा ये यकीन खत्म हो जाएगा। पहले जब लोग बैंकों पर भरोसा नहीं करते थे तो वो जाने कहां कहां अपना पैसा छुपाकर रखते थे। बक्सों में, जमीन के अंदर, पुराने तहखानों में या दीवार के पीछे
लोग मानते थे कि बैंक नाम की जो चीज है, उसकी अपनी कोई गुडविल नहीं है और वो कुछ  अज्ञात किस्म के निजी ऑपरेटर चलाते हैं। लेकिन बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने इस तरह की सोच बदल डाली। हममें भरोसा जागा कि अब तो सब बैंक सरकार के हैं और सरकार हमारा पैसा लेकर कहां जाएगी। वापस तो करेगी ही।
जारी
Story- Pro. Prabhat Patnayak



पार्ट- 1- 

बैंकों में जमा हमारे पैसे डूबने वाले हैं- 1

ऐसा लगता है कि बीजेपी सरकार जब तक देश की अर्थव्यवस्था का ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान एन्ड हिन्दुस्तान आफ दी हट फिटे मुंह न कर ले, उसे चैन नहीं मिलने वाला। इस ओपड़ी दी गुड़गुड़ दी पाकिस्तान की ओर बीजेपी सरकार ने फाइनेंशियल रिजोल्यूशन एंड डिपॉजिट इश्योरेंस बिल यानि कि एफआरडीआई बिल लाकर छलांग लगा दी है। इस बिल में एक रिजोल्यूशन कॉरपोरेशन बनाया जाएगा। इस कॉरपोरेशन में काम करने वाले ज्यादातर लोग केंद्र सरकार के होंगे। इसके तहत किसी बैंक की हालत पतली होने की हालत में जमाकर्ताओं और क्रेडिटर्स के पैसों को बैंक से उधार लेकर गड़प्प वाले डिफाल्टरों को बचाने में यूज करेंगे।

अभी तक इस तरह के कामों के लिए केंद्र सरकार के पास पैसा होता था। यही पैसा बैंकों के ‘बेल आउट’ के लिए यूज करते थे। अब ये बेल आउट को आउट कर देंगे और सोच रहे हैं कि बेल इन को इन कर दें। बेल इन करने पर जो जिम्मेदारी केंद्र सरकार की होती थी, जिसके लिए उसके पास पैसा होता था, वो हमारी जेब की है। अब कोई दिवालिया होगा तो सरकार बहादुर अपनी जेब से नहीं देंगे। बल्कि हमें अपनी जेब से देने होंगे। इसके लिए चाहे बैंक में पैसे जमा करने वाले हों या बैंक से लोन लेकर वह पैसे बैंक में रखने वाले हों, दोनों की जेब कुतरी जाएगी। बल्कि कुतरी क्यूं भई? ये बिल पास हो गया तो काटी जाएगी।
जारी--
Story- Pro. Prabhat Patnayak


पार्ट- 1- 

Friday, December 1, 2017

एक जज की मौत: कैसे चली नागपुरी फाइल, कैसे बदले बयान?

व्हाट्सएप्प से चली, फेसबुक तक पहुंची जज बृजगोपाल लोया की मौत से जुड़ी एक पोस्ट खासी वायरल हो रही है। एनॉनिमस के पास इसके कई तथ्यों की पुष्टि नहीं है, फिर भी ये कई सवाल खड़े करती है इसलिए एनॉनिमस इसके साथ है। सवाल समझ में आएं तो लाइक करिए, शेयर करिए और कमेंट करिए। न आएं, तो भी अफसोस करने वाली कोई बात नहीं। क्योंकि सवाल तो हैं ही, जब तक जवाब नहीं मिलते। 


  • सोशल मीडिया पर वायरल हुई जज लोया की रहस्यमय मौत की खबर 
  • इस खबर की निगरानी करने और जरूरत के मुताबिक जवाब देने का काम कैबिनेट मंत्री पीयूष गोयल दिया गया 
  • पीयूष गोयल का काम था कि देश के बड़े अखबार या चैनल कारवां स्टोरी को न दिखाने पाएं



जिस दिन कारवां मैगजीन ने सीबीआई की स्पेशल कोर्ट के जज बृजगोपाल लोया की रहस्यमय मौत पर खबर छापी थी, उस दिन भारतीय जनता पार्टी के अंदर पूरी खामोशी थी। जज लोया की रहस्यमय मौत की खबर ने स्पीड पकड़ी और सोशल मीडिया पर वायरल हो गयी। प्रधानमंत्री कार्यालय के सोशल मीडिया संदेशों की निगरानी करने वाले अधिकारियों ने सरकार को बताया कि कैसे भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह से जुड़ी ये खबर सोशल मीडिया में ट्रेंडिंग टॉपिक बन चुकी है। शाम तक, कैबिनेट मंत्री पीयूष गोयल को स्थिति की निगरानी करने और जरूरत के मुताबिक जवाब देने का काम सौंप दिया गया। पियूष गोयल का पहला काम यह था कि देश के बड़े अखबार या चैनल कारवां स्टोरी को न तो छापने पाएं और न ही टीवी पर दिखाने पाएं। इस लिहाज से प्रिंट मीडिया के कुछ बड़े मालिकान को फोन किया गया और इसे कवर न करने की ताकीद की गई।




अगले ही दिन कारवां मैगजीन ने जज लोया की रहस्यमय मौत की खबर का दूसरा हिस्सा प्रकाशित किया। उन्होंने खबर के असली सबूत के तौर पर जस्टिस लोया के घरवालों का वीडियो इंटरव्यू जारी किया। इस इंटरव्यू से पियूष गोयल काफी परेशान हो गए। इस बीच जस्टिस लोया की रहस्यमय मौत की जो खबर अब तक अंग्रेजी में थी, वो वेबसाइटों और सोशल मीडिया पर मराठी, हिंदी, मलयालम और बंगाली सहित कई भाषाओं में दिखने लगी। ये काम कारवां मैगजीन ने नहीं किया। ये उन्होंने किया, जिनके दम पर अभी भी हमें सच देखने सुनने पढ़ने और जानने को मिल जाता है। जैसे हिंदी में मुझे यह स्टोरी सबसे पहले जनचौक पर दिखी। इस खबर का हमारी अपनी भाषा में पहुंचना था कि ये बुरी तरह वायरल हो गई। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर गंगासागर तक लोगों की आंखों में सवाल उभरने लगे।




इसी बीच, पीयूष गोयल को एहसास हुआ कि इस मामले में भाजपा की तरफ से काउंटर करने के लिए एक और ठोस प्रयास की जरूरत है। लिहाजा अमित शाह, अरुण जेटली, देवेंद्र फड़नवीस और पीयूष गोयल को मिलाकर 4 सदस्यों की एक टीम बनाई गयी। देवेन्द्र फड़नवीस नागपुर से हैं। ये वही शहर जहां न्यायाधीश लोया का निधन हुआ था। जज बृजगोपाल लोया का इलाज करने वाले दांडे अस्पताल और महाराष्ट्र के वित्तमंत्री सुधीर मुंगेंतिवार से जुड़े मेडिटिरीना हॉस्पिटल को सावधान रहने को बोला गया।

मेडिटिरीना हॉस्पिटल का रिकॉर्ड, इन दोनों जजों की बात और दांडे अस्पताल से मिली ईसीजी रिपोर्ट की फाइल बना ली गई

एक ईसीजी रिपोर्ट दांडे अस्पताल से मिली थी। जज लोया के नागपुर जाने वाले दो जजों जस्टिस कुलकर्णी और न्यायमूर्ति मोडक से कॉन्टैक्ट किया गया। उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया। मगर जज लोया के साथ 1 दिसंबर 2014 की रात को होने का दावा वाले दूसरे दो जज ऑन रिकॉर्ड बात करने के लिए मान गए। अब मेडिटिरीना हॉस्पिटल का रिकॉर्ड, इन दोनों जजों की बात और दांडे अस्पताल से मिली ईसीजी रिपोर्ट की फाइल बना ली गई।




अरुण जेटली का मानना था कि ये फाइल सभी बड़े अखबारों और न्यूज चैनलों को दी जाए। खासतौर से उन्हें, जो एंटी सरकार माने जाते हैं। इसलिए चार मीडिया हाउसों को चुना गया। इनमें कुछ तथाकथित 'लेफ्ट लिबरल' मीडिया हाउसेस भी शामिल थे। नागपुरी फाइल इनके हवाले कर दी गई। पीयूष गोयल ने व्यक्तिगत रूप से मीडिया हाउसों को फोन किया ताकि वो एक ऐसी स्टोरी चला सकें जिससे जज बृजगोपाल लोया की रहस्यमय मौत की खबर को बदनाम किया जा सके। सबसे पहले इसे एनडीटीवी ने चलाया। जज लोया की मौत पर पहले ही दो खबर चला चुके एनडीटीवी के लिए आसान निर्णय था। अगला इंडियन एक्सप्रेस था, जो पहले इसे अपने फ्रंट पेज पर ले जाने से हिचकिचा रहा था। लेकिन थोड़े प्रेशर के बाद वो मान गया। अगले दिन ये खबर इंडियन एक्सप्रेस में पहले पेज पर छपी।




एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस ने जज लोया की रहस्यमय मौत से जुड़ी कहानी तो सुनाई, मगर दोनों एक जैसी ही थीं। 27 नवंबर की सुबह जब इंडियन एक्सप्रेस के पहले पेज पर यह स्टोरी छपी, तो अरुण जेटली और अमित शाह कोर टीम के अन्य सदस्यों के साथ टेलीफोन पर बात कर रहे थे। तभी उन्हें पता चला कि ईसीजी रिपोर्ट में एक गलती हो गयी है। रिपोर्ट में दिखती तारीख गलत थी। ईसीजी रिपोर्ट दर्ज तारीख 30 नवंबर 2014 थी। जबकि न्यायाधीश लोया को 1 दिसंबर 2014 को अस्पताल ले जाया गया था। अब यह तय किया गया कि इस गलती को छुपाने के लिए अस्पताल 'तकनीकी गड़बड़ी' की बात कहकर अपना स्पष्टीकरण जारी करेगा। अमित शाह व्यक्तिगत रूप से उत्सुक थे कि स्टोरी "इसी हफ्ते खत्म हो जाए"। ठीक उसी लाइन पर काम करते हुए अस्पताल ने दावा किया कि ईसीजी रिपोर्ट में 'तकनीकी गड़बड़' थी।




उधर यह टीम जज लोया के परिवार के साथ लगातार कॉन्टैक्ट में थी और उन्हें कारवां पत्रिका को दिए गये अपने पिछले सबूतों से मुकर जाने के लिए राजी कर रही थी। जज के बेटे अनुज लोया पर मामले से पीछे हटने का काफी दबाव बनाया जा रहा था। दरअसल अनुज ने पहले एक चिट्ठी लिखी थी। इस चिट्ठी में उसने दावा किया था कि अमित शाह का केस सुलझाने के लिए उनके पिता को सौ करोड़ रुपये की रिश्वत ऑफर हुई थी। ये रिश्वत किसी और ने नहीं, उस वक्त के चीफ जस्टिस मोहित शाह ने उन्हें ऑफर की थी। इस मामले का हवाला देते हुए परिवार के खिलाफ होने वाले किसी मानहानि के मुकदमे के असर को बताया गया था। और ये भी समझाया गया था कि कैसे उनका पूरा भविष्य दांव पर है। अनुज लोया काफी डर गए थे। और ऐसा माना जा रहा था कि वो जल्द ही मामले से वापसी की बात उठाएंगे।

  • डॉक्टर बहन अनुराधा बियानी ने अपने भाई की मौत सवाल उठाया था
  • उन्हें टीवी पर भी आने के लिए कहा जा रहा है 


जज बृजगोपाल लोया की डॉक्टर बहन अनुराधा बियानी ने अपने भाई की मौत सवाल उठाया था। अब उन पर भी दबाव डाला जा रहा है कि वह अपनी कही हुई बात से पलट जाएं। उन्हें टीवी पर भी आने के लिए कहा जा रहा है। हो सकता है कि ऐसा ही हो। बीजेपी की कोर टीम कारवां मैगजीन के मालिकों से भी बातचीत कर रही है। वो इसे वहां से भी हटवाना चाह रहे हैं। आने वाले दिनों में यह भी हो सकता है कि पूर्व चीफ जस्टिस मोहित शाह कारवां और पत्रकार निरंजन टाकले के खिलाफ मानहानि का मुकदमा भी दायर कर सकते हैं।

Tuesday, November 28, 2017

Making Joke of- Ivanka Trump, जेल से छूटे गधे और Indian Express

हां तो भइया, मोहल्ले के अनोखे लाल छुट्टी पे चला गवा बाटे तौ ई खबर हमको पढ़नी पड़ रही है। ई खबर को पढ़ने के लिए मणिकांत सुकुल को आना था, मगर हमेशा की तरह उनकी चार बारह की ट्रेन छूट गई। वैसे छूट गई से याद आया कि सोशल मीडिया पे लोग कहि रै हैं कि इंडियन एक्सप्रेस की कलम छूट गई। हम नहीं मानते, छूट गई तो मणिकांत की तरह दूसरी पकड़ लेगा, अइसी हमको उम्मीद है। इसलिए चौड़ियाए बैठे हैं। आगे समाचार यही है कि आपन नकुना औ गरदनिया न छूट जाए, विरोध की शालीनता न टूट जाए, अपनी पदमावती रानी घरी में चौड़िया के बैइठी हैं।
और चौड़ियाएं काहे न भाई? अंबानी के फिलिम मा काम की हैं। कौनो छोटा मोटा जीव समझे हो का? भुला गए जब साहब को रामू बनाए थे, और साहब भी तो सिर झुकाए,,,, ऊ का कहत हैं संसकिरित मा? हां, नतमस्तक टाइप के कौनो चीज। वइसे अमरीका से छूट के आईं इवांका बंगलौर में कहीं गलती से भी न छूट जाएं, दस हजार से ज्यादा लोग मौकाए वारदात पर तैनात कर दिए गए हैं। बहिरे वाली का लिए ऐतना सुरक्षा औ अपनिन बच्ची नाय बचाय पावत बाटे। राम राम, गलत वक्त पुरहरे आ गया है भैया मनीकांत। छूटने का का है भैया कि छूट तौ ऊ आठ खच्चर भी गए हैं जिनका पूरा मीडिया चिल्लाय चिल्लाय के कै रहा है कि गधे हैं। हम कह रहे हैं कि आज कै मीडिया गधन खच्चरन मा फरक नहीं कर पावत है। इनका लिए तो चाचा के यही परिभाषा सही है? कौन वाली? ह ई वाली- टोपा हो का?

Wednesday, April 26, 2017

हिरासत में मौत को छिपाने के लिए पुलिस ने बेगुनाहों को बनाया आरोपी

नन्हें पहलवान नहीं रहे. वह लखनऊ के इंदिरा नगर इलाके में बहुत पहले शामिल हो चुके तकरोही गांव के मजरे फतहापुरवा के निवासी थे. वह मामूली आदमी थे लेकिन उनकी मौत की खबर इसलिए ख़ास है क्योंकि वह उस रमेश लोधी के चाचा थे जिसकी पिछली 7 अप्रैल को पुलिस हिरासत में मौत हुई थी और वही इस मामले के प्रमुख पैरोकार भी थे.

नन्हें पहलवान स्वाभाविक मौत नहीं मरे. पुलिस ने पहले उनका भतीजा छीना और फिर इंसाफ मांगने पर उनका चैन भी लूट लिया. ख़ास बात यह भी कि उन्होंने उन चार लोगों को बेकसूर माना था जिन्हें पुलिस ने इस मामले के आरोपी के बतौर जेल भिजवा दिया.

आज यहां इंसानी बिरादरी, रिहाई मंच और इंसाफ अभियान की हुई साझा बैठक ने नन्हें पहलवान की असमय मृत्यु पर गहरा शोक व्यक्त करते हुए इसे इंसाफ की लड़ाई के लिए बड़ा नुकसान करार दिया. लेकिन साथ ही संकल्प भी लिया कि उनकी लड़ाई को इंसाफ मिलने तक जारी रखा जायेगा. संगठनों से जुड़े लोगों ने इस पूरे मामले की छानबीन की थी जिसके नतीजे पुलिस को ही कटघरे में खड़ा करते हैं.

यूपी पुलिस की क्रूरता का एक नमूना
यह मामला मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी की इस गर्वीली घोषणा की वास्तविकता का उदाहरण है कि कानून व्यवस्था को ठीक करना उनकी सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है. यह उल्लेख भी ज़रूरी है कि नन्हें पहलवान ने एसएसपी के घर दस्तक दी और मुख्यमंत्री के जनता दरबार में भी इंसाफ की गोहार लगायी लेकिन इंसाफ मिलने की संभावना का कहीं से कोई सुराग नहीं मिला. राजधानी की इस स्थिति से अंदाज लगाया जा सकता है कि सूबे के दूसरे इलाकों में कानून व्यवस्था की हालत कैसी होगी.    

जांच दल में शामिल थे- इंसानी बिरादरी के खिदमतगार ‘सृजनयोगी’ आदियोग और वीरेंद्र कुमार गुप्ता, रिहाई मंच के अध्यक्ष और मशहूर वकील शोएब मोहम्मद, महासचिव राजीव यादव और अनिल यादव, इंसाफ अभियान की गुंजन सिंह, विनोद यादव और परवेज सिद्दीकी.      

जांच दल ने शिद्दत के साथ महसूस किया कि भतीजे की पुलिस हिरासत में हुई मौत ने नन्हें पहलवान को बुरी तरह झकझोर दिया था. घरवालों की मर्जी के खिलाफ पुलिस उसका शव पोस्टमार्टम हाउस से सीधे भैंसाकुंड ले गयी थी जहां विद्धुत शवदाह गृह में उसे फूंक दिया गया.

घरवाले चाहते थे कि शव पहले उनके गांव ले जाया जाये लेकिन पुलिस ने उनकी एक न सुनी. इस बेचारगी का मलाल उनका पीछा नहीं छोड़ रहा था. सदमे के इस आलम में पुलिस की जब तब आमद और अपने साथ खड़े लोगों पर बन रहे उसके दबाव ने उनकी बेचैनी और बढ़ा दी थी. इंसाफ पाने की उम्मीद बिखरती जा रही थी कि 24 अप्रैल को दोपहर बाद उनका बुझता दिल आखिरकार थम ही गया.

जांच दल ने जोर देकर कहा कि रमेश लोधी की मौत शक के घेरे में है. जेल में बंद लोगों के परिजनों और पड़ोसियों के मुताबिक़ 6-7 अप्रैल की रात कोई सवा बजे इंदिरा नगर के दायरे में शामिल हो चुके चांदन गांव के सुनसान कोने में स्थित कय्यूम के घर चोर घुसा था. आहट से घरवालों की नींद टूट गयी, शोर से पड़ोसी भी जाग गये और वह पकड़ा गया. उसकी थोड़ी बहुत पिटाई हुई और 100 नंबर पर उसके पकड़े जाने की सूचना दे दी गयी.

पुलिस घटनास्थल पर पहुंची लेकिन उसने पानी-मिट्टी से सने चोर को अपने वाहन में बिठाने से परहेज किया और चोर को गोमती नगर थाना पहुंचाने की जिम्मेदारी कय्यूम और उसके पड़ोसी अकील पर लाद दी. मोटरसाइकिल पर दोनों के बीच चोर बैठा. पड़ोसी होने के नाते दूसरी मोटरसाइकिल से इरफान और बबलू भी साथ हो लिये. रात ढाई बजे तक चारों अपने घर वापस भी लौट आये. यही चारों बाद में आरोपी बना दिये गये. चारों गरीब परिवार से हैं और अपने घरों के मुखिया भी हैं. उनके जेल चले जाने के चलते उनके परिवार भीषण तंगी से गुजर रहे हैं.

पुलिस कहती है कि उसने चोर को अपने कब्जे में लिया था लेकिन वह उसकी पकड़ से भाग निकला. उसे बहुत खोजा गया लेकिन वह हाथ न आया. दूसरे दिन सुबह तकरोही से सटी मायावती कालोनी के पास लावारिस लाश मिली. 100 नंबर पर इसकी सूचना मिलने पर पुलिस आयी और उसे मेडिकल कालेज ले कर चली गयी. उसे लावारिस घोषित कर दिया गया.

नन्हें पहलवान के मुताबिक़ रात कोई 3.30 बजे पुलिस उनके घर आयी थी और उनसे रमेश लोधी के बारे में पूछताछ की थी. लेकिन यह नहीं बताया कि आखिर इतनी रात में की जा रही पूछताछ के पीछे माजरा क्या है. अगले दिन यानी 7 अप्रैल को कोई 11.30 बजे पुलिस फिर गांव आयी और उनसे मोबाइल पर एक धुंधली सी तसवीर पहचानने को कहा. नन्हें पहलवान और फिर रमेश की मां सताना समेत घर के दूसरे सदस्यों और पड़ोसियों ने भी उस तसवीर को नहीं पहचाना. तो भी पुलिस ने नन्हें पहलवान को पोस्टमार्टम हाउस चल कर लाश की पहचान करने का दबाव बनाया.

नन्हें पहलवान ने लाश को देखते ही उसकी पहचान अपने भतीजे के तौर पर कर दी. इसके साथ ही पुलिस ने रहस्यमयी मुस्तैदी दिखायी और लाश को फ़टाफ़ट फुंकवा कर ही दम लिया. इस बीच सूचना पा कर रमेश की बहन बिंदेश्वरी सीधे भैंसाकुंड पहुंची थी. उसने लाश को गांव ले जाने की ज़िद पकड़ी और पुलिस की इस जल्दबाजी के पीछे किसी साजिश की आशंका भी जतायी. लेकिन उनकी आवाज अनसुनी रहा गयी. पुलिस ने जो चाहा, वही किया. वर्दी का आतंक बहुत भारी होता है.

शवदाह के समय मौजूद लोगों ने कुछेक पुलिसवालों को फोन पर किसी को कुछ ऐसा भरोसा दिलाते हुए सुना कि सब ठीक हो जायेगा सर, कि काम पूरा हो गया सर. शव दाह के फ़ौरन बाद पुलिस नन्हें पहलवान को थाने पर पहुंचने का आदेश देकर चलती बनी. थाने में समझौते की बात चल रही थी और उनसे किसी कागज़ पर अंगूठे का निशान लिया जाना था. इस बीच वह दवा लेने बाहर निकले. इस बहाने उन्होंने किसी वकील से संपर्क साधा और उसकी सलाह पर वापस थाने जाने के बजाय सीधे अपने घर चले गये.

इसके बाद पुलिस कैलाश लोधी के पीछे पड़ गयी जो उन्हें थाने से मेडिकल की दूकान तक ले गये थे. पुलिस को लगा कि नन्हें पहलवान के थाना वापस न लौटने के पीछे कैलाश लोधी का दिमाग है. पुलिस ने उन्हें धमकाया, लगातार उनका फोन घनघनाया और रिस्पांस न मिलने पर उनके घर भी धमक गयी. उन्हें डर है कि पुलिस उन्हें कभी भी फंसा सकती है.

इस डर की छाया नन्हें पहलवान की अंतिम यात्रा के दौरान भी दिखी. इस मामले पर सबने जैसे खामोशी ओढ़ रखी थी. एक नौजवान ने बताया कि सुबह नन्हें पहलवान बहुत उदास थे. कहा कि अब कुछ नहीं होनेवाला. पुलिस बच निकलेगी और चार लोग पुलिस के गुनाह की सजा भुगतेंगे, उन बेचारों के घर बर्बाद हो जायेंगे. नाम पूछने पर वह नौजवान चौकन्ना हो गया. बोला कि कहीं मेरा नाम मत लिखियेगा. जिन लोगों ने व्हाट्स एप पर इस मामले से संबंधित पोस्ट साझा की, पुलिस ने उनकी भी घेराबंदी की. तो पुलिस बहुत कुछ कर सकती है. उससे दूर ही रहने में भलाई है. वैसे, नन्हें पहलवान के अंतिम संस्कार के बाद भी विभिन्न रूपों में पुलिसिया घौंसपट्टी का यह सिलसिला जारी है.

ढेरों सवाल हैं. लोगों का बयान है कि चोर को थाने ले जाया गया था. क्यों न माना जाये कि थाने में उसकी बेरहम पिटाई हुई जिससे वह लाश में बदल गया. खुद को बचाने के लिए पुलिस ने उसकी लाश सड़क किनारे फेंक दी और फिर लावारिस लाश की बरामदगी दिखा दी. तो फिर पुलिस देर रात नन्हें पहलवान के घर रमेश लोधी के बारे में पूछताछ करने क्यों और किस आधार पर गयी थी. अगर लाश लावारिस थी तो उसकी शिनाख्त करने के लिए उन पर इतना जोर क्यों था. शवदाह की जल्दी क्यों थी. लाश को घर ले जाने में पुलिस को क्या और कैसी हिचक थी. गांव स्थित श्मशान में शवदाह क्यों नहीं हो सकता था. यह झूठी बात क्यों फैलायी गयी कि रमेश शादीशुदा था, कि उसकी पत्नी उसकी इन्हीं आदतों के चलते छह माह पहले उसे छोड़ कर जा चुकी थी. जबकि रमेश अविवाहित था और हिंदू समाज में अविवाहित को जलाने की नहीं, दफनाये जाने की परंपरा रही है. तो क्या शवदाह और उसमें जल्दबाजी के पीछे पुलिस की मंशा अपने गुनाहों के सबूत मिटाने की थी. पुलिस किस बात का समझौता कराना चाहती थी और क्यों. नन्हें पहलवान के हमदर्दों के खिलाफ पुलिस ने निशाना क्यों साधा. ऐसा माहौल क्यों बनाया कि लोग चुप रहें, कि इसी में अपनी भलाई समझें.

जांच दल की मांग है कि मुख्यमंत्री और एसएसपी को भेजी गयी नन्हें पहलवान की अर्जी के मुताबिक़ फ़ौरन कार्रवाई हो और पुलिस की भूमिका की उच्च स्तरीय जांच हो.