Sunday, August 30, 2009

तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आज़ादी देता हूँ....

कई साल पहले अपने नेताजी कह गए थे कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा। नेताजी तो निकल लिए (नेताजी निकले कि नही निकले, ये अभी भी बहस का विषय है...) तो हम कह रहे थे कि नेताजी तो निकल लिए, लेकिन उनके दिखाए रास्ते पे चलने वाले लोग आज भी बहुत हैं, बहुतायत मे हैं। कम से कम बनारस से लेकर अपने जयपुर और पंजाब के दो चार हजार किलोमीटर तक तो फैले ही हुए हैं। ये खून देते हैं और उसके बदले मे आजादी लेते भी हैं और देते भी हैं। कैसे? अभी परसों की ही बात है। गाजियाबाद मे एक नेताजी का दीवाना मिल गया। बेचारे को एड्स था लेकिन दोस्त की जान जा रही थी। दे दिया अपना खून। और खून के साथ आजादी भी। उसके पहले लखनऊ मे भी नेताजी के कई दीवाने पकड़े गए। खून के बदले मे आजादी बेचते हुए। उससे पहले बनारस मे पकड़े गए और अब जयपुर मे पकड़े गए हैं। बेचारे नेताजी अगर होते या फ़िर अगर कही हैं, तो अपना माथा पीट लेते। सोचते, इसीलिए उन्होंने खून और आजादी का नारा दिया था? अरे नारे का मतलब तो कुछ दूसरा ही था। वो तो अंग्रेजों से ले ली जाने वाली आजादी की बात कर रहे थे, उसी जोश मे आकर उन्होंने ये नारा दिया, और अब इस नारे का क्या हाल हो रहा है। दूसरों को जिंदगी देने वाले डाक्टर भी इसी मे शामिल हो गए हैं। कम्पाउन्डंर भी शामिल हो गए हैं। जिस तरह से खून का ये व्यापार पूरे देश मे फ़ैल रहा है या फ़िर फैला हुआ है, उससे साफ़ नजर आता है कि दूसरों को आजादी देने वाले इन दीवानों के आगे तो अंग्रेज सरकार भी शरमा जाय। खून लेना हो या खून देना हो, दोनों मे बराबर का गोरखधंधा चल रहा है। खून देने वाले भी आजादी पा जाते हैं और खून लेने वाले तो परमानेंट आजादी पा जाते हैं। अपनी पूरी जिंदगी से ही। वैसे आजाद देश मे खूब आजादी बिक रही है, बाँट रही है....कोई रोकने वाला है इस पराधीन आजादी पाने से, लेने से , देने से ?

नोट- ग्रुप फोटो हिंदू सी ली गई है, दक्षिण भारत मे खून बेचने वाला रैकेट पकड़ा गया था....

Wednesday, August 26, 2009

डायरी के तीन पन्ने

सन १९९६
स्थान- फैजाबाद
दोपहर को जब सरस्वती लाइब्रेरी से विज्ञान दीपक लेकर आया तो उसमे छापी कहानी पढ़ी। कहानी मे सन २००० की कल्पना की गई थी। मजमून कुछ यूँ था... सन २००० मे रेल और सड़क यात्रा की जरूरत नही होगी। सब लोगो के पास कार होगी जो हवा मे उडेगी। (वैसे कई जगह पढ़ा तो है की पहले की विज्ञान कहानियाँ सच होती जा रही हैं। हवा मे उड़ने की कल्पना ही तो थी, उड़ने तो लगे !!!) काश की ऐसा दिन आता और मेरे पास भी एक कार होती और मैंने उससे हवा मे उड़ता होता। तब तो मैं किसी के भी घर जा सकता हूँ....

सन २०००
स्थान- मिल्कीपुर, फैजाबाद
हम्म... दुकान तो ठीक चल रही है लेकिन गाव वाले पेड़ ही नही लगा रहे हैं.... फ्री मे दे रहे हैं तो भी नही लेकर जा रहे हैं....वैसे क्या जिन्दगी भर इस मिल्कीपुर मे दुकानदारी करनी है? यही मिल्कीपुर बचा हुआ है पेड़ लगवाने के लिए? एक से बढ़कर एक तो बदमाश हैं यहाँ.....ससुरे फ्री मे फोग्गिंग मशीन ले जाते हैं और चार चार दिन तक नही लौटाते। और एक तो ये पंडित साला, पूरे गाव मे क्वेरी के रूप मे बदनाम हो गया है....गाव भर हमको ताना दे रहा है कि तुम ही हो जो उसके खेत मे बैंगन और मिर्चा लगवाए। मौसी बता रही थी की धुनकारी को तो पिछले साल पच्छु टोला वालों ने बिजली का करंट लगाकर मार डाला था.... पता नही क्या होगा....

सन २००९
स्थान- दिल्ली मे किसी जगह पर
सावधान...कुछ भी लिख देने से पहले सावधान। आगे पीछे सोच लो। ये कोई सच का सामना नही है। कसम से, अब कुछ लिख क्यों नही सकता हूँ? उड़ क्यों नही सकता हूँ....

Tuesday, August 25, 2009

फुर्र फुर्र

http://www.henryjacksonsociety.org/henryjacksonsociety/hjsuserfiles/image/bjp.jpg
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र करके उडाय रहे हैं
सर्र सर्र सर्र सर्र करके सब जाय रहे हैं
कटी पतंग सब लूट रहे हैं
फट से ले के लग्गी बझाय रहे हैं
ये फांसा वो फांसा चिल्लाय रहे हैं
की बोर्ड पे जिन्ना नचाय रहे हैं
पटेल की पतंग भी घुमाय रहे हैं
सोच सोच के निकाल रहे हैं
सोचे की मंझा तेज है ,
अब किट कीताय रहे हैं
बगैर सोचे भी दाव
लगाय रहे हैं
नया पटेल भी बनाय रहे हैं
दिल्ली के दंगा माँ हेराय रहे हैं
सब के सब पतंग उडा़य रहे हैं...

Sunday, August 23, 2009

कैसे कैसे लोग.....

दुनिया भर की कलाबाजियों से अघाये, नहाये लोगों को सिर्फ़ नाक मे ऊँगली डालकर सबसे ज्यादा मजा आता है दूसरों की खबरों मे। रस ले लेकर उसे नाक से निकले रस मे डुबोकर रसहीन बनने मे रस आता है उनको। कौन क्या कर रहा है और करने से पहले उन्हें ख़ुद को जानने की आदमी इच्छा मे ही डूबकर मर जाने की उनकी चाहत न जाने कम होगी। कम होगी भी या नही, ये तो उनका मन जानता है, या फ़िर उन्हें इंतज़ार है किसी ऐसे क्षण का, जिसमे सारे रस एक मे ही डूबकर आपस मे मिल जायें। सड़क पर चलते हुए उसी सड़क पर बार बार शीशे मे अक्स निहारती वो पागल लड़की नही दिखाई देगी उनको, उसके धूल और मिटटी से सने बालों से कोई परेशानी नही होगी उनकी, और तो और अपने कोयला हो चुके और आदमजात रंग पे भी बोलने वालों से कोई परेशानी नही होगी उनको, अगर होगी तो सिर्फ़ इससे की वो क्यों है, सवाल उसके होने पे है, उसके न होने से उनके सारे सवाल भी मरने लगते हैं। इन अघाए लोगों का कोई इलाज है क्या?

Saturday, August 22, 2009

खुश होने के बहाने....

खुशी भी कई तरह की होती है। हँसी भी कई तरह की होती है। बीड़ी जलाकर चार गाल बतियाते रिक्शे वालों मे जो ठहाका लगता है, उसे हँसी कहें या खुशी, आसानी से समझ नही आता। जरूरी नही की खुशी का सीधा सम्बन्ध सुख से ही हो। सुखी लोग भी अक्सर दुखी रहते हैं। अब घर के बगल वाली आंटी को ही ले लीजिये। छोटे बेटे की जब तक शादी नही हुई थी, तब तक उसकी शादी के लिए दुखी, शादी हो गई और बहु घर आने के दूसरे महीने मे ही गर्भवती हो गई तो अब उसका दुःख। लेकिन मोहल्लेवाले मानते हैं की आंटी खुश रहती हैं। लेकिन कहाँ? जब वो दुकान पर बैठती हैं, मोहल्ले के चार लोग उनसे नमस्ते करते हैं और खासकर तब, जब उनसे उनकी बहू का हालचाल पूछ लिया जाय। खुश होते हुए भी वह अपनी दुःख भरी आपबीती सुनती हैं। लेकिन उनके खुश रहने का यही तरीका है। रोज सुबह दिल्ली और एन सी आर की तरफ़ आस पास के तीस कोस से हजारो मजदूर काम करने आते हैं। उनकी कमाई का बस एक ही जरिया होता है कि जिस दिन वो आयें, उस दिन उन्हें दिन भर का कोई काम मिल जाए। ताकि शाम को उनके घर का चूल्हा जल सके। लेकिन मजाल है की उनके चेहरों से दुःख की एक बूँद भी टपक जाए। ट्रेन मे बैठे हैं तो ताश की बाजी पे ठहाका लग रहा है और काम की तलाश मे चौराहे पे खड़े हैं तो बीडी के धुएँ मे ठहाके लगाते उनके पीले दांत उनकी खुशी को साफ़ साफ़ टपकाते जाते हैं। इस तरह से देखा जाए तो सभी खुश हैं। तो फ़िर दुःख क्या है और पूरी दुनिया खुशी की तलाश मे इधर से उधर क्यों भाग रही है। आख़िर लोग किस सच्ची खुशी की बात करते हैं? किस खुशी को खोजने पहाडों पे चले जाते हैं या एकांतवास धारण कर लेते हैं। इधर उधर बिखरी पड़ी हँसी को समेट जाए तो खुशी का भरा पूरा जिन्न बन जाता है। चिराग रगड़ा और खुशी का जिन्न बाहर। लो, हंस लो अब, हो लो खुश जितना भी हो। दरअसल जिस स्पीड से हम आगे बढ़ने और अर्थ पर डिपेंड होने के दौड़ लगा रहे हैं, आस पास की चीजों को भूलते जा रहे हैं। मेरठ मे मेरे एक दोस्त हैं। आजकल वो सामाजिक होने की कोशिश कर रहे हैं। सामाजिक होने के लिए क्लास अटैंड कर रहे हैं। उस क्लास मे सामाजिकता मे खुश कैसे रहें, ये सिखाया जाता है। उनका कहना है की हम दुखी सिर्फ़ इसलिए हैं क्योंकि हम सामाजिकता भूल चुके हैं, हमने प्राचीन काल से जो समाज बनाया था, उसके जो नॉर्म्स बनाये थे, अब ख़ुद ही उसे तोड़ रहे हैं। इस टूटन मे हम किस हद तक टूट चुके हैं और टूटे जा रहे हैं, ये हम अभी तो नही जान पाएंगे, लेकिन हमारे अकेले पड़ गए बच्चों के चेहरों पर इसकी टूटन साफ़ देखी जा सकती है। इसलिए खुशी की तलाश बहुत जरूरी है। लेकिन बात फ़िर से वही पर आकर अटक जाती है। खुशी की तलाश आख़िर क्यों? हम यूँ ही क्यों नही खुश रह सकते?

Monday, August 17, 2009

कल सुबह ...


कल सुबह अच्छी होगी,
उजियाली और तरन्नुम से भरी,
रात के कोस कट जायेंगे.
दीवारें बंद कर देंगी हांफना,
और टिन के शेड भी होंगे ठंडे,
जिसमे चर्मरही खाट डालकर सो सकेंगे,
नहीं होगा डर, लाठी और बन्दूक का
बस एक कल की सुबह अच्छी हो जाय,
यकीनन,
कल की सुबह अच्छी होगी ।

Friday, August 14, 2009

मोहल्ले की सुध नही और देश से प्यार है???

गजब के लोग हैं। उन्हें उत्सव का बहाना चाहिए। और ये शायद जिस तरह की अर्थ व्यवस्था इस वक्त चल रही है, उसी के परिणाम हैं। कि हर चीज मे उत्सव खोजने की आदत सी हो गई है। आज जिसे देखो, वही कहता नजर आ रहा है, मेरा देश....मेरा वतन। मेरी तो आज तक समझ मे ही नही आया की कैसा देश? कैसा वतन? मोहल्ले की सुध नही और चले हैं देश से प्यार करने। पड़ोसी का अता पता नही और बात करते हैं पाकिस्तान की। ख़ुद कभी नौकरी के झंझटों से आजाद नही हो पाए, जो मन चाहा , वो कभी नही कर पाए, बात करते हैं आजादी की। सचमुच गजब के लोग हैं। शायद यही अजीब चीजें बाहर के लोगों को भारत की तरफ़ खींचती हैं। मोहल्ले की नाली मे सूअर डुबकियां लगा रहा है , उससे लाख बीमारियाँ हो रही हैं, लेकिन चवन्नी के लिए ऑटो वाले से झगडा कर लेंगे। घर के बाहर लोग कूड़ा फेंकेंगे, लेकिन बजे उसकी नगर पालिका मे शिकायत करने के कूड़ा फेंकने वाले से फौजदारी पे उतर आएंगे। ख़ुद ही ट्रेन मे आग लगायेंगे और मारेंगे मुसलमानों को। ख़ुद ही अपने धर्मगुरु की हत्या करेंगे और इज्ज़त लूटेंगे इसाई महिलाओं की। गजब के लोग हैं। फ़िर कहेंगे कि देश से प्यार है। बिहार से दिल्ली मे लाकर १२-१२ साल की लड़कियों को १०-१० हजार लेकर घरों मे काम करने को सप्लाई करेंगे, और कहेंगे कि हम आजाद हैं। आजाद!!! माई फुट!!

Thursday, August 13, 2009

क्या हम वास्तव मे आजाद हैं ?

कल पकिस्तान मे तो परसों हमारे देश मे स्वतंत्रता दिवस मनाया जाएगा। हर पन्द्रह अगस्त को मैं अपने आप से सवाल पूछता हूँ, क्या मैं आजाद हूँ। और वो भी ऐसे देश मे जहाँ लोगो के नाम के साथ ही गुलामी जुड़ी हुई है। हिंदू हुए तो राम गुलाम और मुसलमान हुए तो गुलाम मोहम्मद। खैर ये तो मजाक हुआ। लेकिन सवाल अभी भी अपनी जगह पर बदस्तूर कायम है। कई लोगों को मैंने कहते सुना कि अंग्रेज तो चले गए लेकिन अंग्रेजियत छोड़ गए। गुलामी की आदत अभी तक हमारे दिलो दिमाग से नही निकल पाई है। अभी भी इस देश मे बच्चा जब बड़ा होता है तो वह नौकर बनने की ही सोचता है। लोगों को नौकरी देने की सोच रखने वाले ऐसे कितने बच्चे होंगे हमारे यहाँ? बचपन मे अम्मा को दिवाली मे पूजा करते देखता था। सभी देखते हैं, मैंने देखा तो कोई बड़ा तीर नही मार लिया। उस पूजा मे मेरी नजर हमेशा तीन चीजों पर रही। एक तो बाबु की बन्दूक, दूसरा लक्ष्मी के साथ रख्खा चांदी का सिक्का और तीसरा चीनी की मिठाई। चांदी के सिक्के पे महारानी विक्टोरिया की तस्वीर होती थी और अम्मा उसपर रोली चंदन का टीका लगाकर पूजा करती थीं। ये अंग्रेजों के जाने के तकरीबन ४७ साल बाद की बात है। थोड़ा बड़ा हुआ और एक सुनार के यहाँ बही खता सँभालने की नौकरी की। दिवाली के दिन वहां भी बुरा हाल रहता था। लोगों को लक्ष्मी गणेश के छपे हुए सिक्के नही चाहिए होते थे। उन्हें चाहिए होते थे तो सिर्फ़ वह सिक्का जिस पर महारानी विक्टोरिया की तस्वीर हो। उसी को वह शुभ मानते थे और उसी को पूजा मे शामिल करते थे। ये सब अभी तक होता है। अभी तक हमारे देश मे महारानी विक्टोरिया की पूजा होती है। पता नही आजादी का क्या मतलब है। कई लोग कहते हैं कि गुलामियत अंग्रेजी के कारण ही अभी तक जिन्दा है. इस बात को तो मैं सिरे से खारिज करता हूँ कि अंग्रेजी भाषा के कारण हमारे अन्दर से गुलामियत का स्थाई भाव जाने का नाम ही नही ले रहा है। लेकिन ये स्थाई भाव जाएगा कैसे? शिक्षा की शुरुआत से लेकर जिन्दगी के अंत तक हमें सिर्फ़ एक ही चीज सिखाई जाती है, सब्र करो, सब्र का फल मीठा होता है। जाहिर है, ये अंतहीन सब्र हमें अंतहीन गुलाम बनाए के लिए सिखाया जाता है। जो सिखाते हैं, वो ख़ुद इस बात का जवाब नही दे पते हैं कि सब्र का फल आखिर मीठा होता कैसे है? क्या माइक्रोसोफ्ट वाले बिल गेट्स ने सब्र किया था? क्या एमएसएन वाले राजीव भाटिया ने सब्र किया था? वैसे सुना है आजकल इन्फोसिस के नारायणमूर्ति सब्र करना ही सिखा रहे है...प्रवचन दे रहे हैं।
नही, इस देश मे आजादी नाम की कोई चिडिया नही रहती। पहले कभी रहती होगी, इधर जब से मैं पैदा हुआ हूँ, मुझे तो नही दिखाई दी। हम अपनी मर्जी का रोजगार नही चुन सकते, अपनी मर्जी का लिख नही सकते। इसी देश मे सैकडों लोग सिर्फ़ इसलिए मार डाले जाते हैं की कुछ एक राज करने वाले लोग उन्हें इस देश का ही नही समझते। गुजरात याद है की भूल गए? सत्ता मे जो भी आता है, सबको अपना गुलाम समझता है। इसमे ख़ुद को कम्युनिस्ट कहने वाले लोग भी बराबर के हिस्सेदार हैं। नंदीग्राम याद है? ख़ुद को प्रगतिशील होने का दावा करने वाले लोग भी इस गुलामी की मानसिकता को संजोये रखने की भरपूर कोशिश करते हैं। अगर ऐसा नही है तो अभी तक मानसिक रूप से गुलाम बना देने वाली हमारी शिक्षा प्रणाली को बदलने की कवायद क्यों नही शुरू की गए? क्यों नही शुरू से ही बच्चों को रोजगारपरक शिक्षाएं दी जाती? जाहिर है, हम ख़ुद ही नही चाहते की हम आजाद हों, फलें फूले। वरना हम तो वही हैं जिन्होंने अंग्रेजों को भगा दिया, इन देसी अंग्रेजों की क्या हमारे सामने कोई औकात है?

Wednesday, August 12, 2009

हर आदमी मे होते हैं दस बीस आदमी...

मुझे शब्द तो याद रहते हैं, लाइने भी याद रहती हैं, लेकिन किसने लिखे, ये नही याद रह पता। इस मामले मे मैं बड़ा कमजोर हूँ। अब जैसे कि यही - "हर आदमी मे होते हैं दस बीस आदमी..." बात सही है और तकरीबन हर मौके की है। अब एकांतवास जैसी चीजें मन को सिर्फ़ एक धोखा सा देने भर को रह गई हैं। लोग इतने ज्यादा हो गए हैं कि हर जगह मिल ही जाते हैं। शब्द बहुत ज्यादा बढे तो नही हैं, लेकिन जितने भी हैं, परेशान करने के लिए काफ़ी रहते हैं। और हर आदमी शब्दों का प्रयोग खूब करता है, मन भरकर करता है। इस पर भी अगर हर आदमी मे दस बीस आदमी हो जायें तो फ़िर तो इन्ही गिने चुने शब्दों की बाढ़ सी आ जाती है। मेरे पास कोई बहुत ज्यादा शब्द नही हैं, लेकिन उन लोगों के शब्दों की संख्या गिन गिन कर खुन्नाया रहता हूँ। मैं मानता हूँ कि मेरे अन्दर मे कुछ और लोग रहते हैं, वो लालची हैं, मौकापरस्त हैं और भी कई अजीब अजीब से लोग हैं। ये लोग वक्त वक्त पे सामने आते रहते हैं। लेकिन आजकाल जो लोग मुझसे मिल रहे हैं, वो तो कमाल के हैं। बैठे ठाले अचानक अध्यात्म की बाते करेंगे और वही बातें करते करते उनका अध्यात्म कैसे ध्न्यात्म (धन ) तक पहुच जाता है, जब तक मेरी समझ मे आता है, वो अपना काम कर चुके होते हैं। ऐसे ही अचानक प्रेम भरी बातें करते करते किस तरह से दुश्मनाई पे पहुच जायेंगे कि लगेगा ही नही अभी अभी कुछ देर पहले प्रेम रस की गंगा बह रही थी। मतलब कोई भी कभी भी अपनी बात पे कायम नही रह सकता। कक्षा एक से लेकर छठीं कक्षा तक मैंने यही पढ़ा कि कैसे आदमी को अपनी कही हुई बातों पे कायम रहना चाहिए। इस खोज मे कि अभी भी वही पढाया जा रहा है, मैंने उन्ही कक्षाओं की किताबें फ़िर से पलटी। अभी भी वही पढाया जा रहा है। तो आख़िर क्या बात है कि हर आदमी मे मुझे एक लम्पट नजर आने लगा है। आखिर वो कौन सी चीजें है जो आदमी को इस कदर बिगाड़ देती हैं कि अच्छा भला बच्चा भी लम्पटपने पर उतर आता है....

Tuesday, August 11, 2009

भूपेन याद हैं ?

भूपेन याद हैं आप सबको ? नही? जाहिर है कि ब्लॉग जगत मे पहली बार समानता का परचम लहराने वाले भूपेन और समानता की वकालत का नतीजा भुगत चुके भूपेन अपनी ब्लॉग जगत पर कम हलचल की वजह से शायद ब्लॉग जगत मे भुला दिए गए हों, लेकिन मैं नही भूल सकता। और जिसे करने मेमुझे अभी बार बार सोचना पड़ता है, उन्होंने कर के दिखा दिया। उनके बारे मे अक्सर लोग फोन पर या किसी और माध्यम पर मुझसे सवाल किया करते हैं। जैसे कि भूपेन आजकल कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं। दरअसल पिछले कई महीनों से वह काफी परशान चल रहे थे- नौकरी और जिन्गदी, दोनों से। उनके बारे मे याद है मुझे कि कई लोगों ने मुझसे कहा कि भूपेन कुछ अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के तो नही लगते। मैंने कहा नही, मुझे तो वो ऐसे नही लगते। सिनेमा हो या कहानी, राजनीति हो या थियेटर - किसी भी विषय पर उनसे बात कर लीजिये, कई सारी नई जानकारियां मिलेंगी। ज्यादातर लोगों को पता होगा कि भूपेन इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार हैं। लेकिन अब ऐसा नही है। मीडिया जगत की हंस नुमा कहानियों के किसी नायक की तरह उन्होंने इस दुनिया को न अलविदा करने का पूरा मन बना लिया बल्कि उन्होंने पत्रकारिता जगत को अलविदा कर दिया है.... पिछले कुछ सालों मे उनसे मेरी वाकफियत के दौरान मैंने जितना उन्हें जाना है, उसके मुताबिक ये काम तो उन्हें कई सालों पहले कर लेना चाहिए था, लेकिन अब जाकर किया है, तो अब भी अच्छा ही है। आज तक हमारी जब भी मुलाकात हुई, उन्होंने मुझसे हमेशा ही कहा कि काश उन्हें कही पढ़ाने को मिल जाए। पढाना भूपेन का सपना था और अब हकीकत मे बदल रहा है। इस सपने को पूरा करने मे मेरा मानना है कि उनके दफ्तर , उनके कामकाज का भी बड़ा हाथ रहा है। पिछले कुछ दिनों से वह मुझसे लगातार कह रहे थे कि अब दफ्तर मे काम करना आसान नही रह गया है। पिछले महीने मिले तो बुरी तरह मानसिक रूप से थके हुए। (भूपेन के मानसिक रूप से थके होने पर भी हमने कितने मजे किए, वो किस्सा बाद मे ) तब भी उन्होंने यही इच्छा जाहिर की थी। भूपेन अपने सपने को आंशिक रूप से साकार करने मे कामयाब हो गए हैं, फिलहाल आई ई एम् सी मे पढ़ा रहे हैं। रोज सुबह ऑन लाइन उनसे जब बात होती है तो अब भूपेन यह नही कहते कि काश पढाने को मिल जाता.....भूपेन कहते हैं कि बच्चे इन्तजार कर रहे होंगे... वैसे भूपेन जैसे पत्रकार का जाना पत्रकारिता जगत के लिए काफ़ी नुकसानदायक है। भूपेन को जितना मैं जानता हूँ, उनके जैसे पत्रकार पत्रकारों मे उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। ये पत्रकारिता जगत की खामी रही की ये जगत उन्हें संभल नही पाया, खो दिया।

नही सुनता...जाओ !!!

समझ मे नही आता कि वह कौन सा ऐसा पहला काम होगा जो किसी मनुष्य ने दूसरे मनुष्य से करने को कहा होगा? कब किसी से काम कहने की शुरुआत हुई होगी? आखिर किस काम से शुरुआत हुई होगी। आदमी ने आदमी का यूज किस तरह से करना शुरू किया होगा.... मुझे एक दिन मे कम से कम १७ फोन आते हैं। किसी की गली मे पानी भरा हुआ होता है तो किसी के घर बिजली नही आ रही होती है। किसी की जमीन पर किसी ने कब्जा कर लिया होता है तो किसी का घर ही कब्जा हो गया होता है। काम का अंत इतने पे ही नही, कई लोग तो ख़ुद कब्जा करना चाह रहे होते हैं और सीधे मुझे फोन कर देते हैं कि मैं उनके साथ चलूँ और उन्हें कब्जा कराने मे मदद करुँ। गजब के लोग हैं....कुछ तो ऐसे हैं जो आधा आधा घंटा सिर्फ़ इस इन्तजार मे रुके रहते हैं कि अभी मैं आऊंगा तब जाकर वह पहले से निर्धारित किया हुआ काम करेंगे। उतने मे किसी अधिकारी का फोन आ जाता है कि वह कही अतिक्रमण हटवा रहा है और उसे कवरेज़ चाहिए। बड़ी मुसीबत है। किस किस की सुनू और किसे गुनू। अभी पिछले तीन दिन से एक सज्जन मेरे दफ्तर पर आकर जम रहे हैं। उनकी दुकान पर किसी ने कब्जा कर लिया है। मैंने उनसे कहा कि आप एस एस पी के पास जाइए, डी एम के पास अपनी शिकायत लेकर जाइए, लेकिन पीछा ही नही छोड़ रहे हैं। दुकान के साथ साथ वो मुझे तरह तरह के तरीके भी बताते रहते हैं। कमाई के। इन तरीकों को सुन सुनकर मैं परेशान हो गया। आज आए, पहले की ही तरह बैठे और दो लाइन मे दुकान की बात निपटाकर लगे फ़िर से वही कमाई की बात करने। थोडी देर तक झेलने के बाद जब मुझे असुविधा होने लगी तो आज मैंने थोड़ा सा कड़े शब्दों मे बात कर दी। वो नाराज से हो गए और वापस चले गए। मतलब ये कि मैं उनकी सुनु और सुनकर अगर उनका काम न करुँ तो उनकी नाराजगी भी झेलू। गजब के लोग हैं। जान न पहचान, मैं तेरा मेहमान।

Sunday, August 9, 2009

बड़े मियां-१

दूसरे ही दिन अकीला बड़े मियां के घर पहुच गई। कहने लगी कि बड़े मियां, अब आपकी फूंक मे वो पहले वाली जान नही रह गई है। साथ मे अकीला की माँ आयशा बेगम भी थीं। उनके मुह से भी वही बोल फूट रहे थे जो अकीला के मुह से। बड़े मियां की बेगम बोली कि जब दम नही रह गया है तो क्यों मुहल्ले भर मे फूंक मारते फिरते हो? बड़े मिया बड़े परेशान। छत पर बने अकेले कमरे मे पहुचे और सोचने लगे। दरअसल यह कमरा बड़े मियां ने सोचने के लिए रिजर्व कर रखा था। कमरे मे बैठने के लिए कुछ नही था, अगर कुछ था तो बस अनाज की बोरियां, कुछ एक पुराने बक्से, चारपाई के टूटे हुए पाए और टूल बोक्स। कुछ दिन पहले पानी की टंकी भी उसी कमरे मे लगवा ली थी क्योंकि बाहर खुले मे होने की वजह से अक्सर बन्दर आकर उसमे धमा चौकड़ी किया करते थे। बड़े मियां पानी की टंकी के पास जा बैठे। गर्मी से कुछ रहत मिली तो सोचने लगे। कई दिन तक जाप करने के बाद तो ये मंतर सिध्द किया था, अब काम काहे नही कर रहा है। सोचा कि अगर मंतर काम कर रहा होगा तो अभी फूँकने से टूल बक्सा खुल जाएगा या कोई चमत्कार जैसी चीज होगी। बड़े मियां ने बुदबुदाते हुए मंतर पढ़ा। बक्से की तरफ़ फूंक मारी। लेकिन बक्सा था कि हिलने का नाम ही नही ले रहा था। बड़े मियां को समझ मे नही आ रहा था कि वो क्या करें। ये बात अगर मुःल्ले मे फ़ैल गई तो उनका कोई नामलेवा नही बचेगा। तकरीबन पौन घंटा सोचने और किसी निष्कर्ष पर न पहुचने के बाद आखिरकार बड़े मियां ने चौराहे पे जाने की सोची।

ता चढ़ मुल्ला बांग दे....

ईश्वर के अस्तित्व पर काफ़ी बातें हुई और काफ़ी हो रही हैं, उनसे इसका कोई मतलब नही। मुद्दा तो ये है कि ये पूरी तरह से मान लिया गया है कि ईश्वर एक मूर्त प्राणी है, उसे सब कुछ दिखाई देता है , सुनाई देता है। लेकिन ऐसा पहली बार लगा कि पिछले कुछ दशकों से ईश्वर को थोड़ा कम सुनाई देने लगा है। मतलब अब ईश्वर बूढे हो चले हैं, आँख की नजर का तो पता नही लेकिन कान का हाल बराबर पता चल रहा है। मुहल्ले मे रामायण हो या मस्जिद मे अजान। सब कुछ बाकायदा लाउड स्पीकर पे हो रहा है। अब ये सब लोगों को सुनाने के लिए हो रहा है या ईश्वर को, ये तो लाउड स्पीकर लगाने वाले जाने, बहरहाल, लाउड स्पीकर से एक बात तो साफ़ हो गई है कि ईश्वर अब कान के कच्चे होते जा रहे हैं। वैसे गाव मे मेरे एक नाना भी थे जो थोड़े से कान के कच्चे थे। जो कुछ भी सुनते थे, थोडी देर मे ही उसमे दस प्रतिशत का इजाफा हो जाता था और वो भी ख़ुद उनकी तरफ़ से। जैसे एक बार मामा के लड़के ने उनसे कहा कि ट्यूबवेल ख़राब हो गई है, मिस्त्री लाना पड़ेगा तब जाकर सिंचाई हो पायेगी। थोडी देर बाद जब मामा आए तो उन्होंने उनसे कहा कि ट्यूब वेल मे आग लग गई है, लड़का गया है बाजार, मिस्त्री को लेकर आग बुझायेगा। बहरहाल ये उनके उम्र की बात थी। लेकिन ईश्वर कुछ इस कदर कान के कच्चे हो गए है कि अभी कुछ दिन पहले मेरे इलाके मे एक युवक की गोली मारकर हत्या कर दी गई। हत्या प्रोपर्टी के चक्कर मे हुई थी लेकिन थोडी देर मे मेरे पास फोन आने लगे कि कही धार्मिक बवाल हो गया है क्या? बूढा गए ईश्वर न जाने कैसी कैसी अफवाह फैलाते हैं। बहरहाल, बात हो रही थी ईश्वर के कान के कच्चे होने पर। आजकल तो मैंने देखा है कि तकरीबन सभी धर्मो के लोगों ने लौद्स्पीकर का प्रयोग करना शुरू कर दिया है। सब चाहते हैं कि उन्ही की आवाज ईश्वर सुने। इसलिए वोल्यूम भी हाई करके रखते हैं। खासतौर पर सुबह के टाइम, जब गजब की नींद आती है तो पता चलता है आवाज लगा रहा है अपने ईश्वर को। अम्मा कहती थीं कि सुबह सुबह उठकर ईश्वर का नाम सुनना चाहिए। लेकिन कौन से ईश्वर का नाम सुनना चाहिए। सुबह सुबह अगर लाउद्स्पीकर की तेज आवाज से नींद टूटे तो गालियाँ किसे देनी चाहिए। या रात मे जब थक हार के घर लौटे हों और तेज़ आवाज मे जागरण हो रहा हो तो क्या करना चाहिए। अम्मा ने बताया ही नही।

बहाने बरसात के...

इधर पिछले कई दिनों से बरसात बिल्कुल नही हो रही है। वैसे गाजियाबाद मे कई लोगों को मैंने ये भी कहते सुना की अगर महिलायें खेत मे हल चला लेती, तो हो सकता था कि बरसात हो जाती। हवन वगैरह तो लोगों ने बहुत किए, लेकिन बरसात नही हुई। कुछ दिन पहले गाव होकर आया। शाम के वक्त गाव मे अंडा करी बनवाई थी। अभी भी गाव मे अंडा एक ऐसी वस्तु मानी जाती है जिसे ठेले पे या घर के बाहर कही भी खा सकते हैं, सार्वजनिक तौर पे खा सकते हैं लेकिन अ-सार्वजनिक तौर पर अगर घर मे खाना चाहे तो नही खा सकते। बहरहाल अंडा करी बनी और ट्यूब वेल मे महफ़िल जमाई गई। अभी अंडा करी लेकर मेरी बुआ का लड़का आ ही रहा था कि जोर की बरसात शुरू हो गई। काफ़ी तेज पानी बरस रहा था। मैं उस पानी मे खूब भीगा। खेतों मे जाकर भीगा हालाँकि खेतों मे उगे खर पतवार मेरे पैरों मे खूब गडे लेकिन इतनी सुहानी बरसात मे भीगने का मजा यूँ ही छोड़ा नही जा सकता था। उसके बाद आराम से वापस उसी ट्यूब वेल मे आया और दो दो पैग वोदका के लिए, बुआ का लड़का घर से चुपके से रोटी लेकर आया था जिससे अंडा करी खायी गई। वापस गाजियाबाद आया तो देखा कि यहाँ वही भीषण गर्मी हाहाकार मचाये हुए थी। बरसात तो क्या- बूंदा बंदी का कही कोई नामोनिशान नही था। तबसे अभी तक तकरीबन पन्द्रह दिन बीत गए हैं या शायद उससे भी ज्यादा। गर्मी है कि दिनोदिन लगातार बढती ही जा रही है। इधर सुना था कि जिले को सूखाग्रस्त घोषित किया जा सकता है लेकिन उसके बाद कोई ख़बर नही आई। वैसे भी जिले को सूखाग्रस्त घोषित करने से क्या ठंडक मिल जायेगी जिले को, या फ़िर बरसात के कुछ छींटे आकर गिर पड़ेंगे। बरसात चाहिए.....कैसे भी किसी भी तरह। बहुत जरूरी है। खेत ही नही, अब तो आँखे भी सूखने लगी हैं। न जाने कब बरसात होगी , या फ़िर अगस्त का महीना ऐसे ही सूखे सूखे निकल जाएगा....

Saturday, August 8, 2009

बड़े मियां

एक अरसा हो गया कहानी से गुजरे हुए। सच मे एक अरसा बीत गया। भाषा तो ख़राब हो ही गई, सोच का भी बंटाधार हुआ पड़ा है। विरोधाभास तो इतने हो गए हैं कि पूछना ही बेकार है। कुल मिलकर एक नागफनी का जंगल सा बन गया है, जिधर जाओ उधर ही रहयिश न हो। इतने सरे विरोधाभासों के बीच एक कहानी जन्म ले रही है, लेकिन ये भी उनसे परे नही लगती....


वैसे बड़े मियां उम्र को दरकिनार कर ख़ुद को कभी बूढा नही मानते थे। उनका कहना था की जवानी तो एक अहसास भर है, जब अहसास होना बंद हो जाए तो समझो गई। और अगर ९० साल की उम्र तक अहसास होता रहे तो पठ्ठा ९० साल की उम्र मे जवान है। सुबह सवेरे जब सरकारी हैन्पंप पर अंजोरी मे अपना गुल मजन लेके आते, मुहल्ले के लुख्खों की भीड़ आसपास ही रहती। उनसे बात करने के लिए नही, इसलिए कि अभी मुहल्ले की कुछ एक लड़कियां, औरतें उनके पास आएँगी कि बड़े मियां बासी मुह हैं, सर पे एक फूंक मार देंगे । ये सब बड़े मियां की पकी हुई दाढी और कंधे तक लटकते बालों के कारण होता और बड़े मियां ये सब जानते हुए भी उन्हें कटवाने के बारे मे कभी भी नही सोचते। आख़िर कुछ तो जवानी की अकड़ होनी चाहिए थी। जवानी मे मुहल्ले की शब्बो , शकीला, जाहिरा, शमायला और पंडितानी तक उनके इसी बालों पर मरती थीं। अब भले ही उन सबके चेहरे झुर्रियों से भर गए हों, बड़े मिया ख़ुद को उसी उम्र का समझते थे। बहरहाल सुबह सवेरे बड़े मियां अंजोरी मे गुल मजन लेके विजय की दुकान के सामने वाले इंडिया मार्का हैण्ड पम्प पर पहुचे। अभी ऊँगली गुल मे डुबोई भी नही थी कि कुरैश निस्वां के पास रहने वाली आयशा आ गई। उसके बच्चे को तीन दिन से बुखार था। बोली, बड़े मिया, नजर सी लग गई दिखे है। एकाध फूंक सी मार देते तो ..... बड़े मियां ने इससे आगे और कुछ नही सुना, अंगूठे और कानी ऊँगली से बच्चे का माथा पकड़ा और कुछ बुदबुदाते हुए धीमे धीमे 'फूंक सी' मारने लगे। इधर मुहल्ले के लुख्खों की टिप्पणियां जारी रहीं- बड़े मियां, आराम से !!! उड़ न जाए कहीं... बहरहाल , शमायला गई। तभी बापू बालिका मे पढने वाली अकीला आती दिखी। लुख्खों की बांछे खिल गई। बड़े मिया की भी। आते ही अकीला बोली, बड़े मियां, आज गणित का पेपर है, फूंक मार दो पास होने वाली। बड़े मियां ने एक बार लुख्खों की तरफ़ देखा, फ़िर अकीला से बोले, चल, अपने घर की तरफ़ चल, वही आता हूँ। इस पर अकीला बोली, अभी सीधे स्कूल जा रही हूँ, अभी फूंक मारो। आखिरकार बड़े मियां ने बुदबुदाना शुरू किया। अकीला कभी बड़े मियां के हिलती दाढी देखती तो कभी लुख्खों को। उनमे से रहमान उसे पसंद था लेकिन वो तो दिखाई ही नही दे रहा था। उसने सोचा था कि फूंक के बहाने जायेगी तो रहमान को एक नजर देख लेगी। फ़िर आगे का गणित और रेखागणित, सारे सवाल वो रहमान के हवाले कर देगी। लेकिन ऐसा नही हुआ और बड़े मियां की फूंक बे असर चली गई।
जारी .....

Thursday, August 6, 2009

कार्ड खरोचन मशीन

दफ्तर से वापस लौटकर कही बाहर जाने का मन नही होता है। और अगर थोड़ा सा भी पसर लिए, तब तो अल्लाह ही मालिक है। फ़िर तो चाहे कोई भी आवाज देता रहे, मैं और मेरी तन्हाई पीछा छोड़ने का नाम ही नही लेते। और अगर ऐसे मे अगर मजबूरन कुछ लाने बाहर निकलना हो और जेब मे पैसे न हों तो.... पहले अम्मा याद आती थीं, अब टी एम् या वो कार्ड खरोचने वाली मशीन याद आती है। कुछ ख्याली पुलाव भी मन मे घपर झोल करने लगे। सोचा की काश ऐसा होता की जो समान मांगना है, उसका फोन पर ही ऑर्डर हो जाता और फोन करने पर जो डिलीवरी बॉय आता , वो वही कार्ड खरोचने वाली मशीन भी साथ लाता। अब जब कैश लेस बनने का संकल्प किया ही है तो ससुर सब्जी और बंधानी हींग भी घर पे ही कैश लेस मिले। लेकिन फ़िर सोचे साला ऐसा अगर हो गया तो ससुर पूरे देस की हालत ही पतली हो जायेगी। ब्लैक मनी कहा जायेगी? अब तो स्विस बैंक वाले भी मांगने पर डिटेल दे देते हैं। लोकसभा चुनाव मे ये मुद्दा खूब सुने थे। की हमारे देस मे भी लोगो के स्विस बैंक अकाउंट की डिटेल लाने की मांग चल रहे है....कान लगा, बहुत याद किया, पिछले डेढ़ दो महीने से ऐसी कोई बहस तो सुनाई नही दी। का हुआ सबको? सब चुप कहे मार गए हैं भाई? हेरा गए हैं शायद। बहरहाल, सोचे की कैश लेस बनने पर और क्या क्या होता, अपना हिंदुस्तान बदलता न बदलता, लेकिन अपना इंडिया तो खूब बदलता। पता लगता की ससुर चोर और लुटेरे घर आयेंगे, डेबिट या क्रेडिट कार्ड खरोचने वाली मशीन साथ लायेंगे, मुस्कुराते हुए पिस्तौल निकालेंगे और सर कहकर कार्ड से पैसा अपने अकाउंट मे ट्रांसफर करेंगे और जय श्री राम हो जायेंगे। अरे हाँ, ये भी तो किसी का मुद्दा था? ' जय श्री राम !!'' कहाँ गया? सुनाई नही देता आजकल। ये देखिये, कार्ड खरोचन मशीन केता तो खतरनाक है। वैसे इंडिया को ये कार्ड खरोचन मशीन और आगे तक भी ले जा सकती है। राह चलते होल्ड अप करके कोई भी कार्ड खरोचन मशीन लेकर चाकू लगाकर कहेगा, ला बेटा, अंटी मे नही, कार्ड मे जो कुछ भी है निकाल के दे दे नही तो तेरे दिमाग से मेडिक्लेम का नंबर भुलवा दूंगा। मजाक नही है, अभी तीन दिन पहले मेरे एक दोस्त के साथ ऐसा ही हुआ, लुटेरो ने उन्हें कार मे लिफ्ट दी और ऐ टी एम् के सामने लेजाकर कोड पूछकर पैसे निकाल लिए। अहा...देश कैश लेस होने लगा है। सोचकर मन मे झुरझुरी सी हुई, फ़िर भी हिम्मत करके ऐ टी एम् तक जाना ही पड़ा। अब ताज़ी बीन्स कहा कार्ड खरोचन मशीन से घर बैठे आती है।

Wednesday, August 5, 2009

अपराध हद से पार


अभी अभी अपने एक साथी हम बीट पत्रकार से बात हो रही थी। कुछ देर तो दुआ सलाम और बहुत दिनों से फोन न करने की शिकायतों मे बीता, बाकी शहर की स्थिति के बारे मे। वो बता रहे थे की अब तो गाजियाबाद मे जितना क्राइम हो रहा है, खासकर गाजियाबाद के धन बाहुल्य इलाकों मे, जैसे की वसुंधरा, वैशाली, इंदिरापुरम, लिंक रोड , शालीमार गार्डन वगैरह मे हो रहा है, शायद पूरी दिल्ली मे नही हो रहा है। उनकी बात सही थी। तकरीबन ४ महीने पहले जब मैं साहिबाबाद ब्यूरो मे हुआ करता था, तब अपराध का ग्राफ बढ़ना शुरू हुआ था। अब तो ये बेहद बढ़ गया है। मेरे साथी, पहले मेरी साहिबाबाद डेस्क के प्रभारी से ही दो दिन पहले रात मे दोबारा लूट हो गई। बेचारे काम ख़त्म करके देर रात घर लौट रहे थे, एक कैब से लिफ्ट क्या ली, कैब वालों ने ऐ टी एम् के कोड सहित सब कुछ लूट लिया। सोचने वाली बात है, की एक अकेला आदमी , आधी रात के बाद का समय, और उसके पास जो कुछ भी हो, लूटकर उसे सरेराह छोड़ दिया जाता है। कैसा लगता होगा उस शख्स को जो लुटा। बात रकम की नही है या माल की भी नही है। बात तो है उस मनोस्थिति की जिसमे ये लुटेरे हमें पंहुचा देते हैं। बहरहाल, मेरे वो पहले वाले हम-बीट साथी पत्रकार कह रहे थे की रात नौ बजे के बाद आनंद विहार या यू पी गेट की तरफ़ से मोहननगर आने की हिम्मत करके देखिये, रास्ते मे ही लुट जायेंगे। सबसे ज्यादा जो चिंता की बात है की लुटेरे अब घाट लगाकर कही बैठ नही रहे, वो तो बस कार से या बस से या ट्रक से आते हैं, आपकी गाड़ी के आगे लगते हैं, तमाचा दिखाकर सब लूट ले जाते हैं। अभी परसों ही इन्दिअरापुरम की तरफ़ लूट मे एक युवक की हत्या भी हुई।
लूट की बात से याद आया....
लूट की बात से याद आया की हमारे एक थाना प्रभारी थे। एक बार उन्होंने लूट की एक मार्मिक कहानी बताई... वो पूरी कहानी अगली पोस्ट मे।

'स' से चीजें बिकती हैं...

आज से और अपने पिछले अनुभवों से मैंने देखा की इस वक्त भारतीय मीडिया बाजार मे स से शुरू होने वाली काफ़ी सारी चीजें बिकती हैं, झूम के बिकती हैं। सेक्स हो या साम्प्रदायिकता। स्वयंवर हो या सिनेमा। सच का सामना हो या सामने वाले घर की बातें। जिन चीजों के आगे 'स' लगा दिया गया, उसे बिकना ही है। ब्लॉग जगत मे भी मैंने देखा की 'स' से बिकने वाली चीजें बहुतायत मे हैं। खासतौर पर सेक्स और साम्प्रदायिकता। जब कभी सेक्स या साम्प्रदायिकता पर लिखा गे, खूब पढ़ा गया और आलोचना के साथ था बडाई भी मिली। अभी भी साम्प्रदायिकता खूब बिक रही है। हिंदू मुसलमान के आपसी सम्बन्ध , चाहे वो अच्छे हों या बुरे, खूब बिक रहे हैं। साम्प्रदायिकता की दुकाने सजी हुई हैं और उन्हें बेचने वाले मालामाल हो रहे हैं, हो गए हैं। साम्प्रदायिकता को बेचने -भुनाने मे हमारे नेता भी पीछे नही हैं। तभी तो लालकृष्ण अडवाणी ने अयोध्या मे होने वाले कोरियन विकास का मुद्दा ठुकरा दिया था। आख़िर अयोध्या के चिराग से निकलने वाला मन्दिर का जिन्न उन्हें अपने हाथ से जाता जो लगा। कई चैनलों ने साम्प्रदायिकता का विरोध किया, खासकर गुजरात के मामले मे, तो उस वक्त तो उनकी टी आर पी बढ़ गई, लेकिन आज वो भी पछताते हैं की उनके विरोध ने हिंदू मुस्लिम राजनीति करने वालों को फायदा ही पहुचाया। मुझे तो लगता है चैनलों का साम्प्रदायिकता विरोध प्रायोजित था, बिल्कुल वैसे ही जैसे की इस लोकसभा चुनावों मे चुनावी खबरें पूरी तरह से प्रायोजित थी। और अब उनका पछताना ख़ुद के प्रायोजित कर्म को हवा निकले गुब्बारे जैसा जस्टिफाई करना लगता है। खैर, जो कुछ भी है, ये तो बाजार है, जो बिकता है, वही दिखता है।

Tuesday, August 4, 2009

पत्रकार कब करेंगे सच का सामना....


आजकल टेलीविजन पर आ रहा एक सीरियल ' सच का सामना ' काफ़ी चर्चित हो रहा है, इसे जबरदस्त टी आर पी मिल रही है। (ऐसा खबरिया चैनल और अखबार कहते हैं) कारण। इसमे लोगो से सेक्स और बेड रूम सम्बन्धी सवाल पूछे जाते हैं। शायद इस सीरियल बनने वालो का ये मानना है कि भारत मे अन्तरंग सवाल पूछने के लिए सिर्फ़ एक ही विषय है और वो है सेक्स। सभी जानते हैं कि ऐसा कतई नही है। सवाल तो बहुत सारे हैं जो पूछे जा सकते हैं और जिनसे लोगो को खासी परेशानी मे डाला जा सकता है। अब जैसे एक पत्रकार से ही पूछे जाने वाले सवालों को ले लीजिये। सच का सामना मे एक पत्रकार को सामने बैठकर पूछा जाना चाहिए कि उसने आज तक थाने मे कितने मामले हल कराये? पत्रकार ने अभी तक लिखी गई ख़बरों के मध्यम से कितना पैसा बनाया। चलिए पैसा न बनाया हो, ना सही, लेकिन अपने रसूख का इस्तेमाल कर उसने ख़ुद को कितना फायदा पहुचाया? कब किस कातिल को कैसे बचाया, खासतौर पर पुलिस से सेटिंग करके। प्रशासन से सेटिंग करके आज तक उसने कितनी जमीन बेचीं। सेटिंग आख़िर करते कैसे हैं और पत्रकारिता मे घूस कैसे खाते हैं? इसके अलावा इस लोकसभा चुनावों के बाद सबसे बिकने वाले सवाल। इन लोकसभा चुनावों मे किस रिपोर्टर ने किस नेता से कितने पैसे लिए। अच्छा पैसे ले ही लिए तो उस नेता की स्क्रिप्ट कैसे तैयार की? उसकी तैयार स्क्रिप्ट से नेता को वोट वगैरह मिले कि नही। मिले तो ठीक, अगर नही मिले तो उक्त नेता ने उक्त रिपोर्टर को कितनी और कौन कौन सी गालियाँ दी। वैसे अगर टी वी न्यूज चैनलों की बात करें तो वहां भी बिकाऊ सवाल मिल सकते हैं, मिलते ही हैं। खासकर सेक्स सम्बन्धी। जैसे कि किस ने किस महिला एंकर से एंकरिंग के लिए बिस्तर से होने वाला रास्ता दिखाया। किस ने किस महिला एंकर को कितनी बार चांस दिया और वो भी किस कीमत पर। वगैरह वगैरह ..... सवाल तो बहुत हैं, लेकिन इन पत्रकारों को.....नही नही, कथित पत्रकारों को कोई सवालों के कठघरे मे खड़ा तो करे...

किस हिंदू ने मस्जिद मे नमाज पढ़ी ?

आए दिन इस तरह की खबरें लोकल अखबारों की सुर्खियाँ बनती रहती हैं की मुसलमान हिन्दुओं के भगवान् के लिए माला पूजा सामग्री बनते हैं, मुसलमान हिन्दुओं के मंदिरों मे पूजा करते हैं और मुसलमान हिन्दुओं के साथ हैं। इस तरह की खबरें, मुझे नही लगता कि हिंदू और मुसलमानों के बीच को मित्र भाव या कोई शत्रु भाव पैदा करती हैं। भारतीय समाज मे, खासकर आधुनिक भारतीय समाज को देखते हुए या कहा जा सकता है कि हिंदू हों या मुसलमान, ये हर तरह से एक ही हैं। पुरातनपंथियों की बेहूदा बातो को दरकिनार कर दें तो हर वक्त ये सब साथ मे ही रहते हैं, खाते पीते हैं। लेकिन ये बहस का मुद्दा नही। असल बहस का मुद्दा तो ये है कि क्या किसी ने ऐसी ख़बर कहीं देखी या पढ़ी कि कोई पंडित किसी मस्जिद मे नमाज अता करता हो? या कोई हिंदू किसी मुसलमान के साथ मस्जिद मे गया हो? या कोई हिंदू मस्जिद मे जाकर वुजू करता हो ? जाहिर है कि ऐसी खबरें आती ही नही हैं। मुस्लमान अगर हिन्दुओं के मन्दिर मे जाकर उनकी पूजा प्रक्रिया मे भाग लेते भी हैं तो सिर्फ़ सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए। हिंदू बाहुल्य इलाकों मे तो ऐसा ख़ास तौर पर देखने को मिलता है। ये कोई सामाजिक समरसता नही, ये तो मजबूरी है जिसे जबरदस्ती सामाजिक समरसता का मुलम्मा मीडिया, खासतौर से हिन्दी लोकल मीडिया चढा रही है। न जाने ये झूट की ये खाई कब भरेगी। असत्य का अन्धकार कब ख़त्म होगा? या फ़िर इन सबको, खास कर ऐसी ख़बर लिखने वाले पत्रकारों को ' सच का सामना ' मे भेजना चाहिए।

हर चीज गजब


जानकारी के लिए बता दूँ की या सभी चीजें गाजियाबाद के लोनी की हैं। वैसे गाजियाबाद की भी चीजें इसमे शामिल हैं। अब आगे....
तकरीबन १२ दिनों की छुट्टी के बाद आज जाकर लोनी के दर्शन हुए। लोनी मे इस वक्त गाजियाबाद से लोनी तक के लिए फॉर लेन सड़क बनने का काम चल रहा है। जब ये सड़क बनना शुरू हुई तो जैसे जैसे बनती गई, वैसे ही टूटती भी गई। ये ख़बर मैंने प्रमुखता से छापी। इस सड़क को बनाने मे गोल रोडी का प्रयोग हो रहा था। गोल रोडी मे कितना भी कोलतार लगा दिया जाए, ये सड़क पर टिक ही नही सकती। ख़बर पर प्रशासन ने जांच भी बैठा दी। मजे की बात ये की जांच शुरू होने के बावजूद गोल रोडी का प्रयोग बंद नही हुआ और तकरीबन १० किलोमीटर सड़क बना दी गई। छुट्टी पर जाने से पहले इस सड़क पर बने गढ्डों के कारन मैं कई बार गिरा भी। खासकर रात मे। कुछ दिन बाद पता चला की जांच तो हुई ही नही। प्रशासन ने सिर्फ़ अपने गाल बजाये थे। पूरी सड़क बन गई और बनकर पूरी सड़क टूट भी गई। अब पैच वर्क चल रहा है। सिर्फ़ एक महीने पहले बनी सड़क का। सुनते हैं की ठेकेदार किसी अखबार वाले का रिश्तेदार है, इसीलिए उसपर कोई करवाई नही हो रही है।

पुतले के साथ छीना झपटी


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अभी अभी ख़बर मिली है की नगर पालिका के चेयरमैन का पुतला फूँकने की कोशिश कर रहे लोगों के साथ पुलिस ने मार पिटाई की। ये लोग जलभराव के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे। मतलब साफ़ गली, शहर या देश कोई देना ही नही चाहता....

Monday, August 3, 2009

दिन शुरू हुआ है

अभी तो दिन शुरू हुआ है। लेकिन शुरू होने से पहले ही फोन आ गया की थाने पर कांग्रेसियों का प्रदर्शन है और उसके बाद गिरफ्तारी। मुद्दा रीता बहुगुडा वाला है । मैंने ये पूरा प्रदर्शन कार्यक्रम आयोजित कराने वाले कांग्रेसी से पुछा की इस बार तो कांग्रेसी भाग तो नही जायेंगे। दरअसल पिछली बार, जब रीता वाला मामला पूरे उफान पपर था तो उसी कांग्रेसी के नेतृत्व मे गिरफ्तारी देने चले सवा सौ कांग्रेसियों मे से थाने पहुचते पहुचते सिर्फ़ आठ या नौ लोग ही रह गए थे। बहरहाल इस बार ना चाहते हुए भी उस कांग्रेसी की हँसी छूट गई। उसने बताया की इस बार उसने सबके नाम नोट किए हैं और सबसे साइन भी करा लिए हैं। अब दूसरा फोन। जहा काम करता हूँ, वह की कुल तकरीबन डेढ़ सौ कॉलोनियों मे तिहत्तर कालोनियों मे जबरदस्त जलभराव हो रखा है। लोग गुस्से मे है और उनका गुस्सा भुना रहा है एक खुदा को हाजिर नाजिर मानने वाला कोमरेड । सी पी आई का सदस्य है। लेकिन हर बात खुदा के मुह से ही निकलती जान पड़ती है। देखते हैं, आज क्या क्या होता है...