Sunday, March 25, 2018

नाक में उंगली का राष्‍ट्रीय हितवाद

पूरी तरह से लोकतांत्रिक और सर्वदेशीय चीज़ है ये. कन्‍याकुमारी से कोहिमा चले जाइए (कश्‍मीर मत जाइए, ना. क्‍यों विवाद खड़ा करेंगे, प्‍लीज़), अहमदाबाद से आसनसोल- सर्वत्र आपको यह लुभावनी झांकी देखने को मिलेगी. प्रचुर मात्रा में मिलेगी. सड़क, रेल, खेत-खलिहान, बाज़ार, मंदिर, दफ़्तर, सिनेमा, अदालत, बेडरूम आप कहीं भी घुसकर चेक कर लीजिए, शर्तिया उपस्थिति मिलेगी. बात करते-करते आदमी ने अचानक कान में उंगली डाल ली और ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा! या फिर नाक में. अब ज़ोर-ज़ोर से नहीं हिला रहा (उसमें खतरा है) मगर इस बार प्रवृत्ति खोजी है. नाक में उंगली घुमाते हुए जैसे कुछ खोया हुआ हो, साहब बहुत देर तक खोज रहे हैं. फिर वह प्राप्‍त भी होता है. तो तर्जनी पर सजाकर भावावेश से उसका अवलोकन भी करते हैं, कि अरे, इस अनोखे रत्‍न के हम ही जनक हैं? बहुत बार अनोखा रत्‍न नहीं मिलता, मगर उसकी खोज जारी रहती है. खोज के दरमियान अचानक अवरोध उत्‍पन्‍न हो गया, माने मित्र, पत्‍नी, पिता चले आए तो फट से उंगली नाक से छूटकर बाहर चली आती है और खोजकार्य तात्‍कालिक तौर पर स्‍थगनावस्‍था में चला जाता है.

आख़ि‍र ये ऐसा क्‍या विशेष रत्‍न है जिसके अनुसंधान में आदमी इतनी एकाग्र गंभीरता से जुटा रहता है? और उसे पाने के बाद तर्जनी और अंगूठे के बीच दाबे देर तक स्‍पर्श सुख लेता रहता है, और अंत में इस अनोखे रत्‍न का संचय करने की बजाय उसे परदे, पुराना अख़बार, दराज़ के कोने कहीं चिपकाकर मुक्‍त भी हो लेता है? नाक में उंगली डालकर खोजते हुए और अंतत: उस खोजे को प्राप्‍त करके आदमी के मन में जिन भावों का संचार होता है, उस भावदशा की ठीक-ठीक संज्ञा क्‍या है? इस खोज से प्राप्‍त होनेवाले सुख की प्रकृति संसारी, शरीरी है या आध्‍यात्मिक? क्‍या बुद्ध ने अपनी जातक कथाओं में कहीं इसका ज़ि‍क्र किया है? या सेंट भरता या मिस्‍टर कालिदास ने? इस सहज, स्‍वास्‍थ्‍यकारी, सुशोभनीय प्रवृत्ति का अपने जातीय इतिहास में हम कब से परिचय पाते हैं? यह विशिष्‍ट सांस्‍कृतिक उत्‍पाद हमारी अपनी खुद की रचना है.. या ह्वेन सांग और अलबेरुनी के साथ चीन और अरब से होते हुए हमारे मुल्‍क में आई? मैक्‍समूलर या रोम्‍यां रोला इस विषय पर प्रकाश डालकर गए हैं या अभी तक यह अंधेरे में पड़ा हुआ है. विज्ञजन जो इंदिरा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालय व मानव संसाधन विकास मंत्रालय से इस और उस चिरकुट विषय पर सेमीनार सजाकर मुफ़्ति‍या डिनर जीमते रहते हैं, उनको इस महत्‍वपूर्ण सवाल पर भी चिंता करनी चाहिए. क्‍योंकि मलेच्‍छों से लेकर मैडागास्‍कर तक जहां कहीं भारतीय संस्‍कृति की चर्चा होगी, नाक में उंगली के इस विरले सांस्‍कृतिक, स्‍वास्‍थ्‍यकारी उपादान व धरोहर को हम अनदेखा नहीं कर सकेंगे. हम कर भी दें, बाकी दुनिया न कर सकेगी. इस मोहक राष्‍ट्रीय पहचान में हम हिन्‍दु हैं न मुसलमां. स्‍त्री हैं न पुरुष. हम विशुद्ध-अशुद्ध भारतीय हैं.

तो आइए, इस अनूठे राष्‍ट्रीय विरासत के स्‍मरण में हम सभी सुबह-सुबह अपनी-अपनी नाकों में उंगली डालें और अनोखे खोज में जुट जाएं. बड़ा लालित्‍यमय अनुभव बनेगा. एक ही क्षण समूचा राष्‍ट्र सुर में धीमे-धीमे साथ-साथ हिलोरे भरेगा. अहाहा!

उंगलीकर्ता: अजदक

Wednesday, March 21, 2018

नोटबंदी के बाद मार्केट में कहां से आया इतना कैश?

8 नवंबर 2016 की रात को अचानक मोदी जी के मन में नोटबंदी का लड्डू कैसे और क्यों फूटा, सही-सही तो वही बता सकते हैं, लेकिन उन्होंने हमें जो नोटबंदी का जो कालाधन टाइप का झूठ बताया था, उसकी पोलपट्टी खुलती जा रही है। वैसे भी, पोलपट्टी झूठ की ही खुलती है। शुक्र है मोदी जी धोती नहीं पहनते। बहरहाल, रिजर्व बैंक ऑफ मोदिया की ही रपट है कि अभी बाजार में जितना पैसा सर्कुलेशन में है, वह उन नंबर्स से कहीं ज्यादा है, जो नोटबंदी के पहले रिजर्व बैंक के पास थे। मतलब नोटबंदी के पहले मार्केट में जितना पैसा तैर रहा था, अब उससे कहीं ज्यादा तैर रहा है।

नोटबंदी के बाद नोटों का, हमारा, अर्थव्यवस्था का क्या हुआ और क्या होता जा रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है। हम लाइनों में लगे, लाठी खाई, टांगें तुड़वाईं, गाली खाई, लड़े और लड़ने के बाद पता चला कि कालाधन तो सफेदधन कर लिया गया। वह भी बगैर कोई टैक्स चुकाए। अभी तक सरकार इसका एक्यूरेट आंकड़ा नहीं दे पाई है कि नोटबंदी के बाद कितना कालाधन उसने सफेद किया और सफेद करने के कितने पैसे लिए।

रिजर्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि 8 नवंबर से पहले देश में 17.97 ट्रिलियन करेंसी फ्लो में थी। तब मोदी महान ने ताली पीट-पीटकर कहा था कि कालाधन वाले माथा पीट रहे हैं, और ताली बजा बजाकर करोड़ों लोगों को बेवकूफ बनाया था। अब आरबीआई बता रहा है कि 8 मार्च 2018 यानी इसी महीने बाजार में कैश सर्कुलेशन 18.13 ट्रिलियन रुपये हो चुका है। मजे की बात यह कि अभी खुद आरबीआई को नहीं पता कि इसमें उसने नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और इनके लत्ते-गत्ते के कड़क नोट शामिल हैं या नहीं। वैसे अगर नरेंद्र मोदी के इन चाहने वालों के भी पैसे इसमें जोड़ दिए जाएं तो अमाउंट और भी बढ़ जाएगा।

अरे हां, नोटबंदी के पीछे मोदी महान ने एक और तर्क दिया था- डिजिटाइजेशन। आरबीआई की ही रिपोर्ट कहती है कि अक्टूबर 2017 से फरवरी 2018 तक के बीच में डेबिट-क्रेडिट कार्ड से होने वाले भुगतानों में मोदी महान जितनी ही गिरावट आ चुकी है। पिछले साल 28 अगस्त 2017 में आरबीआई ने ही बताया था कि नोटबंदी के बाद सिर्फ 1 फीसद नोट वापस नहीं आए, बाकी जितने छापे थे, सब वापस आ गए। मगर कालाधन? आया? पंद्रह लाख? आए? नौकरी? आई? हुंह। 

Monday, March 12, 2018

हत्यारे ठाकुरों को बचाने में लगी है योगी सरकार

बलिया में सूदखोरों द्वारा जिंदा जलाई गयीं दलित महिला रेशमी की मृत्य के बाद गांव में संघर्ष जारी है. गांव के लोग अपनी मांगों के साथ खड़े हैं. मांग पूरा न कर योगी सरकार आरएएफ जैसे अर्ध सैनिक बल लगाकर जनता को कुचलने पर आमादा है. योगी सरकार में बलिया जिलाधिकारी का सामंतों द्वारा जिंदा जलाई गई दलित महिला की मौत के बाद भी उनके गांव न जाना साबित करता है कि सभी घटना में संलिप्त हैं. रिहाई मंच ने कहा कि  योगी को दलित महिला की जिंदा जलाकर की गई हत्या-हत्या नहीं दिखती. क्योंकि हत्यारे उनकी ही जाति के हैं.

रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव ने कहा कि दंगाइयों को शहीद बताकर चेक बांटने वाले योगी को बलिया की दलित महिला को जिंदा जलाने से कोई फर्क नहीं पड़ता. इसीलिए तो चौबीस घंटे बीतने को हैं और डीएम को शर्म आ रही है कि कैसे दलित के घर जाएं. पर चिंता न करिए इंसाफ पसंद अवाम ने तय किया है कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होंगी लाश नहीं उठेगी.

उन्होंने कहा कि गाय को मां बताने वालों के लिए दलित माताओं की क्या इज्जत है आज बलिया के जजौली में पड़ी लाश गवाह है. जिसके हत्यारे को भाजपा मंत्री उपेंद्र तिवारी ने संरक्षण दिया है और सरकार अपराध मुक्त प्रदेश का दावा कर रही है.हमलावर ठाकुर जाति के हैं और पीड़िता दलित समुदाय से संबद्ध है। अभी तक मुख्य अभियुक्त गुड्डू सिंह की गिरफ्तारी नहीं हुई है। भाजपा सरकार में मंत्री उपेंद्र तिवारी और स्थानीय भाजपा विधायक अपराधियों का संरक्षण कर रहे हैं. पीड़ित परिवार को पुलिस प्रशासन द्वारा आश्वासन दिया गया था कि 24 घंटे के अंदर अपराधियों को गिरफ्तार कर लिया जाएगा। लेकिन अभी तक केवल दो अभियुक्तों की गिरफ्तारी हुई है और मुख्य अभियुक्त को सरकारी दबाव के चलते जानबूझकर गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है।

राजीव यादव के बताया कि पीड़ित परिवार पर मुकदमा वापस लेने का लगातार दबाव बनाया जा रहा था। पहले वाले हमले के दौरान ही अगर पुलिस प्रशासन ने उचित कार्रवाई की होती तो अपराधियों ने इस तरह का दुस्साहस नहीं किया होता। बलिया की इंसाफ पसंद अवाम की मांग की जब तक हत्यारे गुड्डू सिंह की गिरफ्तारी, पीड़ित दलित परिवार को पचास लाख रुपये, नौकरी, दो एकड़ जमीन और सूदखोरों के खिलाफ करवाई नहीं होती लाश नहीं उठेगी.

गौरतलब है कि सूदखोरों की 9 मार्च को कोर्ट में पेशी होने वाली थी। 8 मार्च की मध्य रात्रि में गुड्डू सिंह के भाई सत्यम सिंह और उनके साथ बहुत सारे लोग आए थे। वो लोग चाहते थे कि रेशमी कोर्ट में जाकर गवाही न दे। लेकिन रेशमी ने धमकी देने पर कहा कि कोर्ट जाऊंगी और दोषियों को सजा दिलवाऊंगी। उसके बाद वो लोग गुस्से में आकर उनके ऊपर तेल फेंक दिया और फिर आग लगा दी। इस दौरान हमलावरों ने पीड़िता की बच्चियों के साथ मारपीट भी की। हत्यारोपी गुड्डू सिंह लगातार सूद वसूल रहा था. जबकि पैसा दिया जा चुका था। बावजूद इसके उनके लोग घर पर आकर अक्सर धमकाते रहते थे। साल भर पहले भी गुड्डू सिंह ने मारपीट की थी। साथ ही जलाने के अलावा घर फूकने की कोशिश की थी। उन लोगों ने घर में आग लगा दी थी लेकिन लोगों ने मिलकर बुझा दिया था। इस घटना के बाद एफआईआर भी दर्ज हुआ,  जिसका मुकदमा भी चल रहा है। 

Thursday, March 8, 2018

महिलाओं के लिए मुश्किल

भारत में औरतें काम से बाहर हो रही हैं। देश की कार्यशक्ति का हिस्सा बनने वाली महिलाओं का प्रतिशत पिछले बारह वर्षों में सीधे दस फीसदी नीचे आ गया है। किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए यह खबर भयंकर बेचैनी पैदा करने वाली होती, लेकिन हमारे यहां तो इस पर बात भी नहीं हो रही है। वर्ल्ड बैंक के आंकड़े बता रहे हैं कि 2005 में 15 साल से ज्यादा उम्र की लगभग 36 फीसदी महिलाएं वेतन या मजदूरी के एवज में कहीं न कहीं काम कर रही थीं। लेकिन 2017 में ऐसी महिलाओं का हिस्सा सिमटकर 25.9 फीसदी पर आ गया। इसका असर देश की कुल श्रमशक्ति में कमी के रूप में देखा जा रहा है। सन 2016 में चीन का प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत का 2.4 गुना था, जबकि प्रति कामगार जीडीपी 1.7 गुना दर्ज किया गया। लेकिन तीन दशक पहले चीन उत्पादन से लेकर कमाई तक में भारत से पीछे था। उसकी प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत से कम तो थी ही, प्रति कामगार जीडीपी भी भारत से कम थी। वर्ल्ड बैंक के मुताबिक सन 1991 में इन दोनों ही मामलों में चीन का दर्जा भारत से नीचे था। लेकिन चीन की तेज तरक्की के पीछे तकनीकी बढ़त के अलावा खास बात यह देखी गई कि वहां की श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी भारत से कहीं ज्यादा है। पिछले साल के आंकड़े के मुताबिक भारत की 25.9 प्रतिशत के मुकाबले चीन की 60.4 प्रतिशत महिलाएं बाहर निकलकर किसी कार्यस्थल पर अपनी सेवाएं दे रही थीं। मामले का दूसरा पहलू यह है कि कुल महिलाओं में कामकाजी महिलाओं का हिस्सा धीमी रफ्तार से ही सही, लेकिन पूरी दुनिया में गिर रहा है, पर इस गिरावट में जितनी तेजी भारत में दर्ज की गई है, उसकी कहीं और कल्पना भी करना मुश्किल है। इसकी वजहों पर जाएं तो हाल का नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे बताता है कि 15 से 19 वर्ष तक की 78.3 फीसद लड़कियों को हम घर से बाहर जाने ही नहीं देते, जबकि 20 से 24 साल की 30.8 प्रतिशत लड़कियों को ही घर से बाहर जाने की इजाजत मिलती है। और यह बाहर निकलना भी प्राय: काम पर जाने के लिए नहीं, बाजार, अस्पताल और आसपास के दर्शनीय स्थलों के दर्शन तक ही सीमित होता है। 1991 में भारत की तीन चौथाई महिलाएं खेत में काम करती थीं। यह हिस्सा अभी 59 फीसद के आसपास आ गया है। उद्योगों और सेवाओं में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ी है, लेकिन 2005 के बाद से इस दायरे में भी ठहराव या गिरावट देखी जा रही है। सबसे ज्यादा बुरा हाल मध्यम वर्गीय नौकरियों का है, जिनमें टिक पाना महिलाओं के लिए मुश्किल साबित हो रहा है। सरकार को उद्यमियों से मिलकर इस बारे में कोई रास्ता निकालना चाहिए, वरना सिर्फ मुनाफे की फिक्र महिलाओं के साथ-साथ देश को भी गर्त में ले जाएगी।

today's edit- http://epaper.navbharattimes.com/paper/18-13@13-09@03@2018-1001.html

Tuesday, March 6, 2018

बेफिक्री से स्त्री का बहना विरले ही देख पाते हैं

माया पारीक ने चार साल पहले लव मैरिज की थी। पारसी नेकजद से। पिछले साल अप्रैल में नेकजद हार्ट अटैक से मर गए। माया अब मायके में हैं क्योंकि नेकजद की फैमिली उन्हें वापस नहीं ले रही है। बार बार दोहराती हैं कि जो करना चाहती हैं, कर नहीं पा रही हैं। कहती हैं कि शादी के बाद जैसे-तैसे करके सबको ऑलमोस्ट मना लिया था। मगर अब नहीं मना पा रही हैं। नहीं मना पा रही हैं की बात उन्होंने चिट्ठी में नहीं बताई है, लेकिन अवचेतन के भय वहीं सुने जाते हैं, जहां चुप्पी होती है। जहां से कोई आवाज नहीं आती।

जो भय हमारी चेतना में होते हैं, उनके लिए हम कुछ न कुछ इंतजाम कर लेते हैं। दैहिक और आलमोस्ट मानसिक क्षतियों के लिए हमने कानून बना रखे हैं। जहां कानून नहीं हैं, वहां समाज, जाति और जितने हो सकते हैं, उन नामों के मुहर लगे नियम बना रखे हैं। आए दिन की जरूरत और नई मिलती समझ के साथ सब कुछ बदलते भी रहते हैं। फिर भी स्त्रियों का हाल बिलकुल भी नहीं बदला है तो वजह साफ है, कानून और समाज उनके असल भय तक पहुंच पाने में कामयाब नहीं है। अंदर से स्त्री को कोई छू ही नहीं रहा है। खुद स्त्री भी नहीं।

इस कॉलम के लिए काफी स्त्रियों ने अपनी सहेली की कहानियां भेजीं। कुछ ने बताया कि बंधकर बड़ी हुई उनकी सहेली ससुराल से बंधी तो सबसे पहले सास की पसंद की भिंडी और देवर के पसंद के पराठे बनाने सीखे। बच्चे पैदा किए। लड़की पैदा करने पर ताने झेले, मारपीट भी। बच्चे बड़े किए और अब अकेली है। पति होते हैं, मगर वह न होने के बराबर ही होते हैं। कुछ ने बताया कि उनकी सहेली ने फलां कपड़े पहन लिए तो पति देव पांच दिन तक फुंफकारते रहे। कुछ ने कहा कि वह अपने सहेली को समझाती हैं कि उसे कुछ करना चाहिए, लेकिन किसी ने यह नहीं बताया कि उनकी ये सहेली कौन है? अपने यहां स्त्रियों ने अपने भय से बात करने की कला कुछ इसी तरह से विकसित की है, जिसका अंत निपट अकेलेपन के अंधेरे में खोया हुआ है।

वित्तीय सुरक्षा एक हद तक इस अंधेरे को साफ करने में कामयाब हुई है। पैसा कमाने वाली स्त्रियों में कमोबेश पैसा कमाने वाले पुरुषों जितनी ही बेफिक्री होती है। आखिरी अमेरिकी जनगणना बताती है कि स्त्रियों के पास वहां की कुल संपत्ति का 51 फीसद है। कुछ उन्हें मिलती है तो कुछ वह खुद कमाती हैं। इससे वह खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं। अपने यहां जिस उम्र में आकर काफी सारी स्त्रियां अकेली हो जाती हैं, वहां उस उम्र में स्त्रियां जमकर जीना शुरू करती हैं। मगर फिर भी, वैसा जीना भी अवचेतन में बसे उस भय का स्थाई इलाज नहीं कर पा रहा है। अमेरिका की शिकागो और कॅलीफोर्निया यूनिवर्सिटी का एक संयुक्त अध्ययन बताता है कि वहां की लगभग आधी आबादी अवसादी अकेलेपन का शिकार है। 

कामकाजी होने के बावजूद स्त्रियां अवचेतन के भय पर खुलकर बात नहीं करतीं तो सिर्फ इसलिए कि उन्हें भरोसा नहीं है। कामकाजी तो दूर, स्त्री विमर्श और आंदोलनों से जुड़ी कई स्त्रियों ने इस विषय पर चुप्पी साध ली। संपत्ति की जायज मांग उठाएंगी की बात सभी ने बताई, लेकिन अपने घर में यह बात उठाई या नहीं उठाई, यह नहीं बताया। कानून और समाज अभी तक आधी आबादी के लिए जो कुछ कर पाया है, वह कहीं से भी पूरा नहीं है। और फिर पूरा हो भी जाएगा, तो भी यह भय खुलकर बह पाएगा, क्या कहा जा सकता है।

अवचेतन के भय को बहने के लिए भरोसे का ठोस मैदान चाहिए। जब यह मैदान स्त्री के पास होता है तो वह बहती है। बेफिक्री से स्त्री का बहना विरले ही देख पाते हैं। अभी यह मैदान क्यों नहीं है, यह भय खुलकर बाहर क्यों नहीं आ रहा है, माया पारीक के पत्र की आखिरी लाइन इसे अच्छे से समझा देती है। वह कहती हैं,  ‘शादी करके किसी की लाइफ नहीं खराब करना चाहती। इसमें गलती किसी की भी नहीं है, लेकिन टाइम खराब चल रहा है।’

नोट: मैं कोई स्त्री विर्मशकर्ता नहीं। बनना भी नहीं है। स्त्रियों ने जो बताया, और जो नहीं बताया, बस वही लिखा है।