Monday, December 28, 2009

मुल्तवी से आगे....

बात मुल्तवी करना या फिर मुलत्वी कर देने के बाद या फिर उससे आगे की नहीं है। बात इतनी सी भी नहीं है कि मुल्तवी कर दी गयी चीज को आगे बढ़ाना है। बात तो ये है कि बस बात है। और वो बात कुलश्रेष्ठ के दिमाग मे कुछ इस कदर घूम रही थी कि वो सब जगह से भन्नाया लेकिन डरकर चुपचाप बैठा था, दांत पीस रहा था। जिसे भी फोन कर रहा था साला फोन ही नहीं उठा रहा था। ' आज इस शहर को हो क्या गया है?' कमीना शहर। कुत्ता शहर। समझ मे नहीं आ रहा था कि किसी व्यक्तिगत समस्या से ग्रस्त लोग पूरे जहान को क्यों गरियाने लगते हैं। लेकिन ये सोचते हुए भी वह गरियाता जा रहा था। सबको। मुसीबत तो ये कि गरियाने की कोई आवाज नहीं थी। तो फिर? तो फिर क्या? कुलश्रेष्ठ की मर्जी। मन मे गरियाये या न गरियाये। मर्जी होते हुए भी वह खुलकर नहीं गरिया सकता था। डरता था न। और डर भी क्या? चवन्नी छाप नौकरी का। जिससे ज्यादा तो ठेला लगा कर कमाकर आ जाते हैं। वो भी अपनी मन मर्जी से। गरियाने के साथ कुलश्रेष्ठ के दिमाग मे ये भी बात चल रही थी। दरअसल वो चीजों को बिलकुल मुल्तवी करना चाह रहा था। हर चीज मुल्तवी। जैसे कि उसका ब़ोस करता है। जैसे कि बोंस का भी बोंस करता है। भले ही वो कड़ी पहना हो या फिर रेशम पहनता हो। लेकिन मुल्तवी तो करता है। कुल्श्रेअष्ठ अब चीजों को मुल्तवी करने वाली पोजीशन मे आना चाह रहा है।

Thursday, December 3, 2009

मुल्तवी

किसी भी चीज को मुल्तवी करना किस कदर खतरनाक हो सकता है, कुलश्रेष्ठ ने शायद आज - नही इसी एक लम्हे मे जाना । कई दिनों से लगातार मुल्तवी होती जा रही आवारा सांड जैसी भड़ास इस एक लम्हे मे फूट कर निकलने को बेताब हुई। लेकिन बाजार के शोर और टेंपुओं की खटखट मे वो भड़ास दबी तो नही, लेकिन तुरंत निकलकर बाहर आने से बच गई। ख़ुद को एक गाली देकर कुलश्रेष्ठ आगे तो बढ़ा लेकिन अगले ही पल उसके पैरों ने बढ़ने से इन्कार कर दिया। पेट और कन्धों मे झनझनाते हुए मरोड़ से उठने लगे। '' फ़िर से वही अटैक'' !! पर्स टहोका तो पर्स मे रखी दवा तो कब की ख़त्म हो चली। जेब देखी, बैग देखा, डॉक्टर का परचा भी गायब। अब.... झूलते झालते किसी तरह बाइक तक पंहुचा, किक लगाई और घर की तरफ़ भागने लगा। '' ड़्रोर मे एक गोली तो रखी थी....शायद अभी भी वही हो'' लेकिन अगले ही पल उसके दिमाग मे दफ्तर का वह सीन घूम गया। साल भर मे पांचवा ट्रांसफर। दफ्तर के कर्मचारियों की सुगबुगाहट। ' ये साला कमाई धमाई तो करता नही- फर्जी क्रांतिकारी बना फिरता है' '' बौड़म कही का। '' सीढियां चढ़ते हुए नीचे से कुलीग की आवाज आई- '' अबे शीशी मे तेल लाना भूल गया क्या?'' फ़िर से पेट मे मरोड़। इस बार तो कंधे से होते हुए होंठो तक पहुचने लगे। होंठ पर जीभ फेरी को पता नही कितनी पुरानी पपड़ी महसूस हुई। ''आख़िर क्या होता जा रहा है मुझे'' ''चलो इस को सोचने मे थोड़ा टाइम खर्च किया जाय। १५ मिनट का रास्ता १५ घंटे का लग रहा है। ऊपर से ये मरोड़। आखिर कार घर आया।वो बिस्तर पर अजीब तरह से पड़ी मिली। पाया कि उसे भी ऐसी ही कुछ तकलीफ हो रही है। लेकिन खाना? क्या ढाबा? नही...पहले ड्रोर मे रखी दवा। लपक कर ड्रोर तलाशना शुरू किया। एक गोली मिल गई। लेकिन संवाद एक गोली का तो मोहताज नही। एक क्या- २५ गोलियां भी हो तो संवाद उसका भी मोहताज नही... लानत है...लानत है...लानत है...