कल पकिस्तान मे तो परसों हमारे देश मे स्वतंत्रता दिवस मनाया जाएगा। हर पन्द्रह अगस्त को मैं अपने आप से सवाल पूछता हूँ, क्या मैं आजाद हूँ। और वो भी ऐसे देश मे जहाँ लोगो के नाम के साथ ही गुलामी जुड़ी हुई है। हिंदू हुए तो राम गुलाम और मुसलमान हुए तो गुलाम मोहम्मद। खैर ये तो मजाक हुआ। लेकिन सवाल अभी भी अपनी जगह पर बदस्तूर कायम है। कई लोगों को मैंने कहते सुना कि अंग्रेज तो चले गए लेकिन अंग्रेजियत छोड़ गए। गुलामी की आदत अभी तक हमारे दिलो दिमाग से नही निकल पाई है। अभी भी इस देश मे बच्चा जब बड़ा होता है तो वह नौकर बनने की ही सोचता है। लोगों को नौकरी देने की सोच रखने वाले ऐसे कितने बच्चे होंगे हमारे यहाँ? बचपन मे अम्मा को दिवाली मे पूजा करते देखता था। सभी देखते हैं, मैंने देखा तो कोई बड़ा तीर नही मार लिया। उस पूजा मे मेरी नजर हमेशा तीन चीजों पर रही। एक तो बाबु की बन्दूक, दूसरा लक्ष्मी के साथ रख्खा चांदी का सिक्का और तीसरा चीनी की मिठाई। चांदी के सिक्के पे महारानी विक्टोरिया की तस्वीर होती थी और अम्मा उसपर रोली चंदन का टीका लगाकर पूजा करती थीं। ये अंग्रेजों के जाने के तकरीबन ४७ साल बाद की बात है। थोड़ा बड़ा हुआ और एक सुनार के यहाँ बही खता सँभालने की नौकरी की। दिवाली के दिन वहां भी बुरा हाल रहता था। लोगों को लक्ष्मी गणेश के छपे हुए सिक्के नही चाहिए होते थे। उन्हें चाहिए होते थे तो सिर्फ़ वह सिक्का जिस पर महारानी विक्टोरिया की तस्वीर हो। उसी को वह शुभ मानते थे और उसी को पूजा मे शामिल करते थे। ये सब अभी तक होता है। अभी तक हमारे देश मे महारानी विक्टोरिया की पूजा होती है। पता नही आजादी का क्या मतलब है। कई लोग कहते हैं कि गुलामियत अंग्रेजी के कारण ही अभी तक जिन्दा है. इस बात को तो मैं सिरे से खारिज करता हूँ कि अंग्रेजी भाषा के कारण हमारे अन्दर से गुलामियत का स्थाई भाव जाने का नाम ही नही ले रहा है। लेकिन ये स्थाई भाव जाएगा कैसे? शिक्षा की शुरुआत से लेकर जिन्दगी के अंत तक हमें सिर्फ़ एक ही चीज सिखाई जाती है, सब्र करो, सब्र का फल मीठा होता है। जाहिर है, ये अंतहीन सब्र हमें अंतहीन गुलाम बनाए के लिए सिखाया जाता है। जो सिखाते हैं, वो ख़ुद इस बात का जवाब नही दे पते हैं कि सब्र का फल आखिर मीठा होता कैसे है? क्या माइक्रोसोफ्ट वाले बिल गेट्स ने सब्र किया था? क्या एमएसएन वाले राजीव भाटिया ने सब्र किया था? वैसे सुना है आजकल इन्फोसिस के नारायणमूर्ति सब्र करना ही सिखा रहे है...प्रवचन दे रहे हैं।
नही, इस देश मे आजादी नाम की कोई चिडिया नही रहती। पहले कभी रहती होगी, इधर जब से मैं पैदा हुआ हूँ, मुझे तो नही दिखाई दी। हम अपनी मर्जी का रोजगार नही चुन सकते, अपनी मर्जी का लिख नही सकते। इसी देश मे सैकडों लोग सिर्फ़ इसलिए मार डाले जाते हैं की कुछ एक राज करने वाले लोग उन्हें इस देश का ही नही समझते। गुजरात याद है की भूल गए? सत्ता मे जो भी आता है, सबको अपना गुलाम समझता है। इसमे ख़ुद को कम्युनिस्ट कहने वाले लोग भी बराबर के हिस्सेदार हैं। नंदीग्राम याद है? ख़ुद को प्रगतिशील होने का दावा करने वाले लोग भी इस गुलामी की मानसिकता को संजोये रखने की भरपूर कोशिश करते हैं। अगर ऐसा नही है तो अभी तक मानसिक रूप से गुलाम बना देने वाली हमारी शिक्षा प्रणाली को बदलने की कवायद क्यों नही शुरू की गए? क्यों नही शुरू से ही बच्चों को रोजगारपरक शिक्षाएं दी जाती? जाहिर है, हम ख़ुद ही नही चाहते की हम आजाद हों, फलें फूले। वरना हम तो वही हैं जिन्होंने अंग्रेजों को भगा दिया, इन देसी अंग्रेजों की क्या हमारे सामने कोई औकात है?
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