वैसे हम ये भी पूछ सकते हैं कि क्या टैक्स के पैसों से बैंक बचाना ठीक है? थ्योरिटिकली इसका जवाब हां है। मगर तब, जब कि बैंक अपनी तय सामाजिक भूमिका निभा रहे हों। अगर बैंक पैसों को सट्टा बाजार में लगा रहे हैं और इसी वजह से दुखी हैं तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ये वो काम नहीं है जिसके लिए इन बैंकों को बनाया गया है। बैंकों को बचाने के लिए टैक्स का पैसा थ्योरिटकली उपलब्ध‘होना चाहिए, लेकिन बैंकों की सट्टा बाजारी जैसी हरकतों पर लोकतांत्रिक नियंत्रण भी होना चाहिए।
अकेले उनका सरकारी होना एनफ नहीं है। इसके अलावा, टैक्सपेयर्स और बैंक में पैसा जमा करने वालों के बीच चलने वाला ये पूरा पचड़ा एक छलावा है जिसे एफआरडीआई विधेयक के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों यानी एनपीए के बारे में इतना हल्लागुल्ला होने के बावजूद, ये संपत्तियां बैंक की कुल परिसंपत्तियों का लगभग 12 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इस तरह का तकरीबन 90 प्रतिशत एनपीए राष्ट्रीयकृत बैंकों का है। लेकिन कुल बैंकिंग व्यवसाय में ऐसे बैंकों के बड़े हिस्से को देखते हुए उनके एनपीए का भार इतना अधिक नहीं है कि उसे किसी तरह के खतरे की घंटी समझा जाए। इसके अलावा, सरकार ने अभी-अभी सवा दो लाख करोड़ रुपये के रीकैपिटलाइजेशन की घोषणा की है। इसलिए अब तो बैंकों के पास तो पैसे ही पैसे हैं और सबकी हालत ठीक है। और आगे भी ठीक ही रहनी है।
अरुण जेटली संसद में ये जो बिल लाए हैं, इसे वह टैक्सपेयर्स और बैंक डिपॉजिटर्स के बीच हितों के संघर्ष की कल्पना करके ठीक कहने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा तो बस एक ही हाल में हो सकता है, जो अभी दूर-दूर तक नहीं दिख रहा। और अगर होगा भी तो उसे रोकने के कई तरीके हैं, जिनमें से एक चीज है सावधानी। लेकिन सावधानी को सरकार ने छह से दस बजे तक के लिए बैन कर दिया है। सरकार बिस्तर से लेकर बैंक तक बेतुकी बातें ही नहीं कर रही, बल्कि बेहद बदमाशी भरे फैसले भी करने की तैयारी में है। प्राइवेट कंपनी के लोन डिफाल्टर देश के कुल एनपीए में 75 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते हैं, उनका गबन उन्हीं से वसूला जाना चाहिए। मगर अब ऐसा नहीं होगा। अब सरकार बहादुर ओपड़ी दी गुड़गुड़ फिटे मुंह पाकिस्तान टू दी हिंदुस्तान का इंतजाम है कि लोन लेकर भागने वालों का पैसा हम आप जैसे लोग भरेंगे, क्योंकि हम बैंक में पैसे जमा करते हैं।
समाप्त
Story- Pro. Prabhat Patnayak
अकेले उनका सरकारी होना एनफ नहीं है। इसके अलावा, टैक्सपेयर्स और बैंक में पैसा जमा करने वालों के बीच चलने वाला ये पूरा पचड़ा एक छलावा है जिसे एफआरडीआई विधेयक के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों यानी एनपीए के बारे में इतना हल्लागुल्ला होने के बावजूद, ये संपत्तियां बैंक की कुल परिसंपत्तियों का लगभग 12 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इस तरह का तकरीबन 90 प्रतिशत एनपीए राष्ट्रीयकृत बैंकों का है। लेकिन कुल बैंकिंग व्यवसाय में ऐसे बैंकों के बड़े हिस्से को देखते हुए उनके एनपीए का भार इतना अधिक नहीं है कि उसे किसी तरह के खतरे की घंटी समझा जाए। इसके अलावा, सरकार ने अभी-अभी सवा दो लाख करोड़ रुपये के रीकैपिटलाइजेशन की घोषणा की है। इसलिए अब तो बैंकों के पास तो पैसे ही पैसे हैं और सबकी हालत ठीक है। और आगे भी ठीक ही रहनी है।
अरुण जेटली संसद में ये जो बिल लाए हैं, इसे वह टैक्सपेयर्स और बैंक डिपॉजिटर्स के बीच हितों के संघर्ष की कल्पना करके ठीक कहने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा तो बस एक ही हाल में हो सकता है, जो अभी दूर-दूर तक नहीं दिख रहा। और अगर होगा भी तो उसे रोकने के कई तरीके हैं, जिनमें से एक चीज है सावधानी। लेकिन सावधानी को सरकार ने छह से दस बजे तक के लिए बैन कर दिया है। सरकार बिस्तर से लेकर बैंक तक बेतुकी बातें ही नहीं कर रही, बल्कि बेहद बदमाशी भरे फैसले भी करने की तैयारी में है। प्राइवेट कंपनी के लोन डिफाल्टर देश के कुल एनपीए में 75 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते हैं, उनका गबन उन्हीं से वसूला जाना चाहिए। मगर अब ऐसा नहीं होगा। अब सरकार बहादुर ओपड़ी दी गुड़गुड़ फिटे मुंह पाकिस्तान टू दी हिंदुस्तान का इंतजाम है कि लोन लेकर भागने वालों का पैसा हम आप जैसे लोग भरेंगे, क्योंकि हम बैंक में पैसे जमा करते हैं।
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