Saturday, August 22, 2009

खुश होने के बहाने....

खुशी भी कई तरह की होती है। हँसी भी कई तरह की होती है। बीड़ी जलाकर चार गाल बतियाते रिक्शे वालों मे जो ठहाका लगता है, उसे हँसी कहें या खुशी, आसानी से समझ नही आता। जरूरी नही की खुशी का सीधा सम्बन्ध सुख से ही हो। सुखी लोग भी अक्सर दुखी रहते हैं। अब घर के बगल वाली आंटी को ही ले लीजिये। छोटे बेटे की जब तक शादी नही हुई थी, तब तक उसकी शादी के लिए दुखी, शादी हो गई और बहु घर आने के दूसरे महीने मे ही गर्भवती हो गई तो अब उसका दुःख। लेकिन मोहल्लेवाले मानते हैं की आंटी खुश रहती हैं। लेकिन कहाँ? जब वो दुकान पर बैठती हैं, मोहल्ले के चार लोग उनसे नमस्ते करते हैं और खासकर तब, जब उनसे उनकी बहू का हालचाल पूछ लिया जाय। खुश होते हुए भी वह अपनी दुःख भरी आपबीती सुनती हैं। लेकिन उनके खुश रहने का यही तरीका है। रोज सुबह दिल्ली और एन सी आर की तरफ़ आस पास के तीस कोस से हजारो मजदूर काम करने आते हैं। उनकी कमाई का बस एक ही जरिया होता है कि जिस दिन वो आयें, उस दिन उन्हें दिन भर का कोई काम मिल जाए। ताकि शाम को उनके घर का चूल्हा जल सके। लेकिन मजाल है की उनके चेहरों से दुःख की एक बूँद भी टपक जाए। ट्रेन मे बैठे हैं तो ताश की बाजी पे ठहाका लग रहा है और काम की तलाश मे चौराहे पे खड़े हैं तो बीडी के धुएँ मे ठहाके लगाते उनके पीले दांत उनकी खुशी को साफ़ साफ़ टपकाते जाते हैं। इस तरह से देखा जाए तो सभी खुश हैं। तो फ़िर दुःख क्या है और पूरी दुनिया खुशी की तलाश मे इधर से उधर क्यों भाग रही है। आख़िर लोग किस सच्ची खुशी की बात करते हैं? किस खुशी को खोजने पहाडों पे चले जाते हैं या एकांतवास धारण कर लेते हैं। इधर उधर बिखरी पड़ी हँसी को समेट जाए तो खुशी का भरा पूरा जिन्न बन जाता है। चिराग रगड़ा और खुशी का जिन्न बाहर। लो, हंस लो अब, हो लो खुश जितना भी हो। दरअसल जिस स्पीड से हम आगे बढ़ने और अर्थ पर डिपेंड होने के दौड़ लगा रहे हैं, आस पास की चीजों को भूलते जा रहे हैं। मेरठ मे मेरे एक दोस्त हैं। आजकल वो सामाजिक होने की कोशिश कर रहे हैं। सामाजिक होने के लिए क्लास अटैंड कर रहे हैं। उस क्लास मे सामाजिकता मे खुश कैसे रहें, ये सिखाया जाता है। उनका कहना है की हम दुखी सिर्फ़ इसलिए हैं क्योंकि हम सामाजिकता भूल चुके हैं, हमने प्राचीन काल से जो समाज बनाया था, उसके जो नॉर्म्स बनाये थे, अब ख़ुद ही उसे तोड़ रहे हैं। इस टूटन मे हम किस हद तक टूट चुके हैं और टूटे जा रहे हैं, ये हम अभी तो नही जान पाएंगे, लेकिन हमारे अकेले पड़ गए बच्चों के चेहरों पर इसकी टूटन साफ़ देखी जा सकती है। इसलिए खुशी की तलाश बहुत जरूरी है। लेकिन बात फ़िर से वही पर आकर अटक जाती है। खुशी की तलाश आख़िर क्यों? हम यूँ ही क्यों नही खुश रह सकते?

1 comment:

  1. sahi hai hum yun hi khush kyon nahi rah sakte badi khushi ki talaas me ham jivan ki chhote chhote khsano ki khushiyaan bhi enjoy nahi karte !!!

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