Saturday, September 26, 2009

मेरा नाम जोकर

नही। ये कोई फ़िल्म नही और न ही फ़िल्म याद करने की कोशिश है। ये तो बस समाज मे उन विदूषकों को तलाशने, उन्हें याद करने की कोशिश है। जोकर शब्द से अक्सर लोगों को याद आता है कुछ अजीब सी पोशाक पहनकर अजीब अजीब सी हरकतें करना। लोगों को हसना, उन्हें हसने के लिए प्रेरित करना। कामेडी फिल्मो की तरह नही, असल जिंदगी मे। दरअसल कितने ही लोग होंगे जो जोकर को अभी तक ठीक से समझ नही पाये। ख़ुद मैं भी अभी पूरी तरह से जोकर को नही समझ पाया हु। ताश का तिर्पनवा पत्ता, जिसे कभी भी कही भी यूज कर सकते हैं और वो बेचारा खुशी खुशी तैयार भी रहता है। लेकिन यही जोकर बाजी इधर की उधर कर देता है। असल जिंदगी मे भी यही होता है। जब भी हम उदास होते हैं तो हमें कुछ तलाश होती है। उस तलाश को पूरा करने के लिए हमेशा विदूषक ही काम आता है। अब उसके रूप कई हो सकते हैं। कभी वह हमारा ही पड़ोसी हो सकता है तो कभी रिक्शे वाला । यहाँ तक कि पानी की लाइन मे लगी प्लास्टिक की बाल्टी लिए वह महिला भी हो सकती है जिसे धकेल कर हम पहले पानी भरना चाहते हैं। हम ख़ुद भी अपने जोकर हो सकते हैं। सवाल है कि जोकर की इस जिंदगी मे जरूरत क्यों। जाहिर है कि जवाब के लिए अभी से नही बल्कि काफ़ी पीछे जाना पड़ेगा। इसका संबंध सिर्फ़ खुश होने भर से नही है। जोकर के मानवीय संबंधो के अध्ययन मे मैंने पाया कि जोकर की उपस्थिति प्रागैतिहासिक काल से ही रही है। कबीलाई समाज मे भी एक विदूषक होता था। वो कबीले के रजा को हँसी खेल मे ही शासन सत्ता की राय देता था और उस वक्त के रजा उसके मजाक को हँसी के साथ सुनते थे और उसे गंभीरता से लेते थे। मुगलकाल मे बीरबल विदूषक थे और उनके किस्से आज भी मशहूर हैं। आज भी मशहूर है कि कैसे बीरबल ने रजा को हँसी हँसी मे ही गंभीर बातो को सुलझाने की अक्ल दी। प्राचीन रजा विदूषक के अहमियत को समझते थे। ग्लोब्लाइज़ेशन के इस दौर मे, जहाँ तक मैं समझता हूँ, अब आधी से ज्यादा आबादी जबरदस्ती प्रजा बन चुकी है या बने जा चुकी है और चौथाई आबादी ख़ुद को राजा समझती है। लेकिन ये राजा अभी तक अपने विदूषक नही खोज पाए हैं। इन्हे उनकी तलाश ही नही है क्योंकि इनकी कोई प्रजा ही नही है। जो प्रजा है भी, वह तो इन्हे राजा के ओहदे पर मान रही है और ऐसा भी इस्ल्ये क्योंकि भारतीय जनमानस अभी तक ख़ुद को प्रजा की मानसिकता से बाहर नही निकल पाया है । ऐसे मे विदूषक ख़त्म होते जा रहे हैं, जोकरों का कही भी कोई नामलेवा नही है। हाँ, कभी कभी दिल्ली मे होने वाले नाटको मे कुछ विदूषक जरूर दिख जाते हैं लेकिन वह भी वही तक सीमित रहते हैं। समाज से विदूषक गायब होते जा रहे हैं। सवाल है, विदूषकों के बगैर कैसा समाज?

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