Tuesday, February 20, 2018

हिला हुआ आदमी व नवाक्षरित उत्‍कर्षशील अन्‍य कहानियां

नये नवाचारों व नवशुचिताओं को नये सन्‍दर्भ देती, किंचित अटक-अटककर ही सही, महानगरीय अंतर्मन की उखड़ाहटों को एक नूतनभाव, हर्षोत्‍कंठ जो एक समर्थ रचनाशीलता में कमोबेश एक ऐंठी वाचालता व विचलनधर्म में बंधी, मगर साथ ही उतनी ही उन्‍मुक्‍त-उन्‍मत्‍त भी, बहती गंगा-सी शनै: शनै: स्‍वयं को प्रकटाना शुरु की है, उस पकड़ की ताकत व ताकत की पकड़ को बहुत ही मजबूत बिम्‍ब-विधानों में “हिला हुआ आदमी व नवाक्षरित उत्‍कर्षशील अन्‍य कहानियां” में पढ़ा जा सकता है. रचनाकार धीमे-धीमे औधड़ावस्‍था को प्राप्‍त हो रहे राहुल राहीव राइजिंग पांडे द्वय हैं, इब्‍ने व सफ़ी किम्‍बा गुलशन व नन्‍दा की तरह जिनकी देह भले दो हो, आत्‍मा का स्‍वर एक और वही विचलनधर्मिता की बुनावटों में गहरे निबद्ध है. या ‘आबद्ध’ है? जो भी है, गहरे से है. उदासियों में घुली, करुणात्‍कता के उद्दंड मुहावरों व प्रीतिहीनता के मुंडेरों से कौंध-कौंधकर कूद लेने को मचलती, ये कहानियां न कहीं शुरु होती हैं, न आखिर में कहीं पहुंचती हैं. पहुंचना चाहती भी नहीं. क्‍योंकि अपनी गहरी चोटों व बदहवास बेचैनियों ने उन्‍हें पश्चिमी दिल्‍ली की दिल मसलनेवाली सड़कों पर बहुत पहले यह निर्मम सबक दिया है कि पहुंचने को भी वही तीन पत्रिकाएं हैं, और चाहने को चार नौकरियां, प्रेम कहीं नहीं है. प्रेमिल मनवंचनाओं के गाढ़े, धूसर कार्य व क्रिया-व्‍यापार हैं. और कैसी भी क्रियात्‍मकता, कर्तव्‍यशीलता क्रय-विनिमय के नये उचाट परिहासलोक में ही पहुंचकर अंतत: सांस लेती, किम्‍बा दम तोड़ती है. 

संदिग्‍ध विद्वनशीलता के सीमित प्रतिमानी क्षेत्रों के चंद आलोचन पंडितों के बीच हालांकि दबी-दबी ऐसी फुसफुसाहटें हैं कि नवस्‍वर की इस नयी रचनाशीलता में नया कुछ भी नहीं, उन पर सीधे-सीधे मलयभूमि व मलेशियाई उद्वेलनाकांत कथाकारों की स्‍पष्‍ट छाप है, जो कहीं आगे जाकर विधर्मी जापानी फिल्‍मकारों की नवधृष्‍टताओं में बहलती, अनंतर कहीं गुम जाती हैं, और राहुल राही व राइजिंग पांडे अभी सजग न हुए तो आगे भी ऐसी ही रहेंगी. गुम. जबकि लेखकद्वय का इस पर स्‍पष्‍ट मतांतर है, और अभी भी, यही मानना है कि उनका अनुभवाकाश पूर्वी उत्‍तरप्रदेश व दिल्‍ली के पश्चिमदेश से बाहर अगर कहीं उतरता है तो वह यू-ट्यूब पर ‘लूज़ टाक’ के कुछ अकिंचन वीडियो व हबीब जालिब के मनोहारी गायन को खाने, व अन्‍य दैनंदिन के दैन्‍य, दैहिक क्रियाओं की निष्‍पत्ति तक ही पहुंचने को जाता है और वहीं बना रहता है. मलयभूमि व मलेशियाई संसार को वह जानते हैं इसी संसार में कहीं है, मगर कहां है इसकी चिन्‍ता में नहीं पड़ते. अपरिचय के ऐसे वीरानों के साहित्‍य को तो वह रात के सपनों में भी नहीं पहचानते.

जो भी व जैसा भी हो, नवाचारी नवउत्‍कर्षशीलता में सीलती ये कहानियां हिन्‍दी के आकाश में धीमे-धीमे उतरती उसे गहरे अर्थों में भर रही हैं, यह गहरे संतोष का विषय है. कम से कम तीन पत्रिकाओं व चार नौकरियों के लिहाज़ से तो है ही. दु:खकातर प्रसंग इतना भर है कि उसी उद्यमशीलता में नीमअंधेर प्रकाशन (गाजियाबाद), किम्‍बा भावना एंड मिसिर पब्लिकेशंस (ओन्‍ली इंगलिश), कानपुर मालूम नहीं क्‍यों सामने आने व प्रकाशकीय जिम्‍मा उठाने में लजाये, सकुचाये हुए हैं. सोचनेवाली बात है “हिला हुआ आदमी व नवाक्षरित उत्‍कर्षशील अन्‍य कहानियां” महानगरीय मलिन धुंधलकों को नवसंदर्भ देगी, या जो जहां देना है, उसे महानगर ही देता रहेगा?
- हिलते उत्कर्ष के शील- प्रमोद सिंह

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