Saturday, November 14, 2009
एक ख्वाब मुल्क का
कई दिनों से समझने की कोशिश कर रहा हूँ की मुल्क का ख्वाब क्या है। होता क्या होगा? अगर मुल्क ख्वाब देखता होगा तो जरूर मुल्क कोई मानवीय चीज होता होगा। यही पर मुल्क मे मानवीय दृष्टि से देखने के इक्षा जगी। मुल्क मानवीय है, ये बात तो समझ मे आई लेकिन मुल्क ख्वाब कैसे देखता है, ये समझ से परे है। बचपन मे पढने के दौरान हमें बताया जाता था की फलाने चाह का ख्वाब ये था, धमाके मामा का ख्वाब वो था। लेकिन कभी इन चाचा मामाओं से कोई आत्मीयता नही पैदा हुई सो उनके ख्वाब के बारे मे कभी गंभीरता से नही सोचा। लेकिन अब लगता है कि एक ख्वाब होना चाहिए, जो मुल्क का हो। शायद ये वही मनोदशा है जिससे हमारे फलाने चाचा और मामा गुजरे। लेकिन ये सारे ख्वाब ठोस धरातल पर आकर न जाने कितने टुकडों मे बिखर जाते हैं और अपना अस्तित्व ही खोने लगते हैं। फ़िर भी जो सवाल है- की मुल्क का ख्वाब क्या हो....खासकर मेरे मुल्क का, वो बदस्तूर कायम है। कई लोगो को गफलत हो सकती है कि मैं राष्ट्रीयता वादी हो गया हूँ, वही कई लोगो को लग सकता है कि मैं विद्रोह की राह पर चल रहा हूँ। लेकिन कुल मिलाकर बात सिर्फ़ इतनी है की मैं मुल्क का ख्वाब खोज रहा हूँ। आख़िर इस मुल्क का ख्वाब क्या है? क्या हर हाथ हो काम मिले? या फ़िर हर भूखे पेट को अनाज मिले? अगर अनाज मिले तो वो किस दर पर मिले? काम मिले तो उसमे कितने वर्किंग डे हों? कितने दिनों की तनख्वाह कटे? खेती का सरकार क्या मूल्य लगाये? और सरकार क्यों लगाये? किसान ख़ुद अपनी फसल का मूल्य क्यों न तय करे? पढने के लिए हमें किसी शहर से बाहर किसी दिल्ल्ली यूनिवर्सिटी या जे एन यू का मुह क्यों देखना पड़े? इंजीनियरिंग की डिग्री चाहिए तो आई आई टी का रास्ता क्यों देखना पड़े? क्या हो सकता है इस मुल्क का ख्वाब...कौन तय करेगा ख्वाबों के बारे मे...आइये, पहले ख़्वाबों के बारे मे तय करें, फ़िर तय करेनेगे की उन्हें कैसे पूरा करना है। क्योंकि गुलामी के बाद हमने सिर्फ़ खवाब देखे हैं, पूरे करने की बात तो दूर, तय भी नही किए हैं....
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