विज्ञापन सीरीज- एक
प्रचार ऐसा माध्यम है जो किसी भी समाज की मानसिकता को पकड़ने का सबसे आसान जरिया होता है। प्रचार के कई तरीके होते हैं, लेकिन प्रचार की सभ्यता का सबसे शशक्त माध्यम दृश्य श्रव्य यानि कि रुपहला पर्दा ही है- चाहे वो छोटा हो या बड़ा। ये सोचना आसान है कि परदे पर तैरती चीजों की परिकल्पना आसान रही होगी लेकिन उन परिकल्पनाओ मे या उनके द्वारा दिखाया क्या जाय, ये सोचना कदरन मुश्किल रहा होगा। जिसे देखना काफी आसान लगता है, और उससे भी ज्यादा आसान रिमोट से उसे बदल देना, उसके पीछे एक जटिल सामाजिक मनोवैज्ञानिकता जुडी हुई है। और इस काम मे डॉक्टर से लेकर इंजिनियर, कलाकार से लेकर अंतरिक्ष की टेक्नॉलोजी जुडी हुई है। इतना ही नहीं, इस काम मे वो सारे आर्थिक सामाजिक सर्वे, अध्ययन भी जुड़े हुए हैं, जो अपने को पूरा करके अपने बौद्धिकता का जबरदस्ती ढोल पिटते हैं। लेकिन उन ढोलों की आवाज से छनकर जो चीज बाहर आती है, वो देखने,समझने मे इतनी आसान होती है, कि उसकी एक एक मामूली सी चीज भी किसी प्रोडक्ट को अरबो रुपयों, डॉलरों का फायदा पहुचती है। इसका मतलब तो ये हुआ कि मानव जीवन के सारे क्रियाकलाप उसे आसान बनाने के लिए हैं, न कि उसे रास्ता दिखने के लिए। खैर, मैं ये मानता हू कि न तो कुछ आसान है और न ही कुछ मुश्किल-क्योकि ये एक प्रक्रिया मात्र है, जीवन की सतत प्रक्रिया। प्रचार विज्ञापनों के माध्यम से किया जाता है और विज्ञापन अमुक वस्तु की विशेषता बताते हुए उसे दर्शक को उसकी तरफ इतना आकर्षित करते हैं की दर्शक उसे खरीदने के लिए मजबूर हो जाये। ध्यान नहीं आता कि पहला सचल विज्ञापन क्या रहा होगा, लेकिन जबसे होश संभाला है, निरमा वाशिंग पावडर का विज्ञापन ही सबसे ज्यादा और पुराना याद आता है। पंच लाइन थी- दूध सी सफेदी, निरमा से आये, इसके साथ गृहणियों के हाथ और कपड़ो के रंग की भी चंद लाइने थी। मध्यम वर्ग की घरेलू मुश्किलात से निकला ये विज्ञापन आज भी सुपर हिट है, भले ही इसमें काम करने वाले लोग बदल गए हो। मजे की बात की पंच लाइन भी वही है। यही से इसी तरह के उत्पाद बनाने वाली दूसरी कम्पनियों ने भी भारतीय माध्यम वर्ग की इस मानसिकता को पकड़ा। गजब की बात तो ये की पिछले तीस सालों मे इस मानसिकता मे जरा सा भी परिवर्तन नहीं आया है। अभी भी तक़रीबन सारे कपडे धोने वाले विज्ञापनों मे हाथ और रंग की ही बात होती रही है। क्यों न इसका ये मतलब निकला जाय की उदारीकरण के तकरीबन डेढ़ दशक से ज्यादा बीतने के बाद भी अभी तक उस माध्यम वर्ग के पास, जिसके पास टी वी तो है, लेकिन वाशिंग मशीन नहीं आ पाई है। क्या वाशिंग पावडर के ये प्रचार अभी तक उस भारतीय निचले माध्यम वर्ग का आइना नहीं बन रहे, जिनके बारे मे सरकार कहती रहती है कि उदारीकरण का सबसे ज्यादा फायदा ये वर्ग उठा रहा है। कम से कम जब तक हाथो को ठीक रखने का दावा करने वाले विज्ञापन आ रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि सरकार के प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के दावों मे कोई दम है। अगर है, तो जो आय बढ़ी है, वो जा कहा रही है? बड़ा साधारण सा जवाब है की आय के साथ साथ महगाई भी बढ़ी है। तो ऐसे मे आय बढ़ने का मतलब क्या रह जाता है? क्या जेब मे कागज के कुछ नोटों का भर बढ़ जाना ही आय मे होने वाली बढ़ोत्तरी है? इसका मतलब तो ये हुआ, कि भारत का एक खास वर्ग आज भी वही जिंदगी गुजर रहा है, जो आज से तीस साल पहले गुजरता था। फर्क इतना आया है कि ब्लैक एंड व्हाईट टी वी कि जगह रंगीन और रिमोट वाले टी वी ने ले ली है। बाकी बदला क्या है पिछले तीस सालों मे? घरेलू महिलाएं आज भी हाथ से ही कपडा धो रही हैं, पावडर मे कपडा भिगो कर साबुन की बट्टी से शर्ट की कोलर रगड़ रही हैं। मजे की बात तो ये कि मॉस प्रोडक्शन के इस काम मे अभी तक प्रति व्यक्ति प्रोडक्शन अलग थलग पड़ा हुआ है। चाहे वो गाव का तालाब हो या शहर का बाथरूम। सब कुछ एक साथ हो रहा है, लेकिन सब कुछ अलग अलग भी हो रहा है। और ये बदलना काफी मुश्किल भी है। इसका सिर्फ एक ही तोड़ है-वाशिंग मशीन। लेकिन वो तो अभी सबके पास आती दिखाई नहीं डे रही है। तो ये मानकर चलें, कि जब तक दूध सी सफेदी का विज्ञापन आता रहेगा, भारतीय मध्यम वर्ग की तकदीर रत्ती भर नहीं बदलने वाली। हालाँकि कुछ लोग मेरे इस लिखे पर मुझे बुजुर्वा होने की बात कह सकते हैं।
विज्ञापनों पर सीरिज जारी रहेगी...